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________________ जिनधर्म-विवेचन विश्व-विवेचन कार्य दिनभर चलता ही रहता है। रेल, मोटर, साइकिल आदि द्वारा आदमी एक नगर से दूसरे नगर को जाता हुआ सबको प्रत्यक्ष देखने में आता है। विद्यार्थी सुबह १० बजे स्कूल जाते हैं और शाम को घर आते हैं। नौकरी करनेवाले रोज ही सुबह ऑफिस जाते हैं और शाम को घर आते हैं; यह सब सतत चलता ही रहता है। गतिरूप-गमनरूप-स्थानान्तरणरूप कार्य रात-दिन चलता ही रहता है तो इस कार्य के लिए निमित्त कारण होना अनिवार्य है। उस निमित्त कारणरूप द्रव्य को ही जिनदर्शन में धर्मद्रव्य नाम दिया है। मोक्षमार्गस्वरूप धर्म अलग है और यह धर्मद्रव्य अलग है। मोक्षमार्ग तो सुखदाता, निराकुलस्वरूप एवं मोक्षदाता है और धर्मद्रव्य तो लोकव्यापक, अचेतन एवं अखण्ड एक द्रव्य है। जैनदर्शन को छोड़कर अन्य किसी भी दर्शन ने इस धर्मद्रव्य को स्वीकृत नहीं किया है। १०. प्रश्न - अब अधर्मद्रव्य की सिद्धि कीजिए? उत्तर - धर्मद्रव्य के कथन के प्रसंग में अनेक पदार्थ गमन करते हैं - यह विषय बताया गया है। अब हम यह भी सोचेंगे कि क्या गमन करने वाले सर्व पदार्थ सदैव गमन ही करते रहते हैं अथवा विशिष्ट मर्यादा पर्यन्त गमन करने के बाद रुक भी जाते हैं? गमन करने वाले पदार्थ रुक जाते हैं या थोड़े समय के लिए स्थिर हो जाते हैं - यह बात सर्वविदित है। इसका अर्थ यह हुआ कि स्थिर रहनेरूप भी एक कार्य इस दुनिया में है। रेल भी गमन करते हुए योग्य स्टेशन पर योग्य समय के लिए नियम से रुकती ही है। कहीं न रुकनेवाली रेल अथवा बस में कौन और क्यों बैठेगा? तथा यदिरेल अथवा मोटर कहीं रुकेगी ही नहीं तो यह मनुष्य बैठेगा भी कैसे? और कहाँ? इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि गमन करनेवाला कहीं न कहीं रुकेगा अवश्य । भले ही हवाईजहाज ही क्यों न हो, उसका रुकना अनिवार्य है। ___ गमन करते हुए रुकने के विषय में हम अन्य पदार्थों का ही दृष्टान्त क्यों देखें? हम-आप रोज जिनमन्दिर जाते हैं तो गमन करके जाते हैं। भले वह हमारा गमन पैरों से हो, कार से हो या किसी भी साधन से हो। जिनमन्दिर जाने के बाद पूजा-भक्ति के लिए मन्दिर में कुछ समय तक रुकते हैं। यह जो रुकनेरूप या स्थिर रहनेरूप कार्य होता है, उसे कोई न कोई कारण तो अवश्य होना ही चाहिए, क्योंकि बाह्य कारण या निमित्त कारण के बिना भी कोई कार्य नहीं होता; इसलिए स्थिर रहनेरूप जो कार्य है, उसमें जो कारण हो, उस द्रव्य का नाम ही अधर्मद्रव्य है। हिंसादि पाँच पाप, सप्त व्यसन या मिथ्यात्व जैसे पापों या महापापों को भी अधर्म कहते हैं; लेकिन यहाँ उस अधर्म की बात नहीं है। इसीप्रकार बाह्य व्रतादि कार्यों को व्यवहार धर्म तथा शुद्धोपयोगरूप आत्मानुभवन आदि कार्यों को निश्चय धर्म कहते हैं, उनकी भी यहाँ बात नहीं है। यहाँ तो धर्मद्रव्य या अधर्मद्रव्य नामक एक, अखण्ड, लोकव्यापी एवं जड़ द्रव्य है, उसे हमें अपने ज्ञान में स्वीकारना चाहिए। धर्मद्रव्य तथा अधर्मद्रव्य - इन दो द्रव्यों का वस्तु-व्यवस्था में स्वीकार मात्र जैनदर्शन ने ही किया है, अन्य किसी भी दर्शन ने इन द्रव्यों को माना ही नहीं; इस विशेषता को भी हमें जानना चाहिए। ११. प्रश्न - क्या आकाशद्रव्य की सिद्धि भी तर्क के आधार से हो सकती है? उसे भी हम जानना चाहते हैं। उत्तर - जैनदर्शन को छोड़कर अन्य अनेक दर्शनों ने भी यद्यपि आकाशद्रव्य को माना है; तथापि जैनदर्शन का कहना कुछ अलग ही है। यहाँ तो तर्क के आधार से आकाशद्रव्य को सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है। हम अपनी आँखों से आकार में छोटे-बड़े आकारवाले अनेक पदार्थों को देखते हैं। यदि पदार्थों के आकार छोटे-बड़े हो सकते हैं तो सर्वोत्कृष्ट आकार भी किसी न किसी द्रव्य का होना ही चाहिए। इस तर्क के आधार से भी आकाशद्रव्य ही सबसे बड़े आकारवाला सिद्ध होता है। आकाशद्रव्य, सभी द्रव्यों को अवगाहन देनेवाला माना गया है। अब, यहाँ अवगाहन' देने का मतलब समझाते हैं - अनन्त जीवद्रव्य, अनन्तानन्त पुद्गलद्रव्य, धर्म और अधर्मद्रव्य एक (10)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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