________________ [ xiii] ग्रन्थ के 225 वें श्लोक का अर्थ उपयोगी होने से यहाँ दिया जा रहा है एकेनाकर्षन्ती श्रलथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण। अन्तेन जयति जैनीनीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी॥ अर्थात् दही की मथानी की रस्सी को खेंचनेवाली ग्वालिनों की तरह जो अनेक वस्तु के स्वरूप को एक अन्त से अर्थात् द्रव्यार्थिकनय से आकर्षण करती है - खेंचती है और फिर दूसरी पर्यायार्थिकनय से शिथिल करती है, वह जैनमत की न्याय पद्धति जयवन्ती है। भावार्थ भगवान की वाणी स्याद्वाररूप अनेकान्तात्मक है। वस्तु का स्वरूप प्रधान तथा गौणनय की विवक्षा से किया जाता है; जैसे कि जीवद्रव्य नित्य भी है और अनित्य भी है। द्रव्यार्थिकनय की विवक्षा से नित्य है और पर्यायार्थिकनय की विवक्षा से अनित्य है, यह नय विवक्षा है। यह श्लोक ऐसा बतलाता है कि शास्त्रों में कहीं निश्चयनय की मुख्यता से कथन है और कहीं व्यवहारनय की मुख्यता से कथन है परन्तु उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि धर्म किसी समय व्यवहारनय अर्थात् अभूतार्थ के आश्रय से होता है और किसी समय निश्चयनय अर्थात् भूतार्थनय के आश्रय से होता है। धर्म तो हमेशा निश्चयनय, अर्थात् भूतार्थनय के आश्रय से ही होता है। यही न्याय पुरुषार्थसिद्धियुपाय ग्रन्थ के पाँचवें श्लोक में तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थ की गाथा 311-312 के भावार्थ में दिया गया है। इसलिए इस श्लोक का दूसरा कोई अर्थ करना योग्य नहीं है।