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________________ [xii] कोई ऐसा मानता है कि निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध जीव की पर्याय और कर्म के बीच ही होता है, दूसरे किसी के बीच नहीं होता - परन्तु यह बात यथार्थ नहीं है। दसरों के बीच ही निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध होता है परन्तु जब-जब कारण बतलाना हो, तबतब उपादानकारण और निमित्त कारण ऐसा कहा जाता है और दो पदार्थों के बीच कारण-कार्य हो, तब निमित्तकारण और नैमित्तिक कार्य - ऐसा कहा जाता है; और एक ही द्रव्य में स्वयं का कारण -कार्य बतलाना हो, तब उपादान कारण और उपादेय कार्य कहा जाता है। इस सम्बन्धी स्पष्टता इसी पस्तक में दी गयी है। कितने ही लोग ऐसी मान्यता रखते हैं कि कर्म के उदयानुसार जीव को Degree to degree विकार करना ही पड़ता है। ऐसी मान्यता दो द्रव्यों की एकत्वबुद्धि में से उत्पन्न होती है। कर्म का जीव में सर्वथा अभाव है; वह जीव के लिए अद्रव्य, अक्षेत्र, अकाल, अभाव है; इसलिए वस्तुत: जीव स्वयं स्वत: विकार करता है, तब निमित्त कौन सा कर्म है? - यह दर्शाने के लिए शास्त्र में कर्म के उदय से जीव में विकार होता है ऐसा कहा जाता है। इस सम्बन्धी स्पष्टता भी इसी ग्रन्थ में की गयी है। सारांश यह है कि निमित्त, व्यवहार और परद्रव्य - इन सबका ज्ञान करने की आवश्यकता है क्योंकि वैसे ज्ञान के बिना यथार्थ ज्ञान नहीं होता परन्तु उसमें से किसी के आश्रय से धर्म कदापि नहीं होता तथा वे धर्म का कारण भी नहीं होते - ऐसा स्पष्ट निर्णय करना चाहिए। (3) जैनीनीति अथवा नयविवक्षा - इस सम्बन्ध में श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव रचित पुरुषार्थसिद्धियुपाय
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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