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________________ [xi] कारण नहीं होने पर भी कारणपने का आरोप आता है, उसे निमित्त कहा जाता है। इस निमित्त सम्बन्धी ज्ञान करना आवश्यक है परन्तु निमित्त के कारण नैमित्तिक में कुछ भी कार्य होता है - ऐसा मानना, वह निमित्त नहीं मानकर वास्तव में उपादान मानने के समान है। इस मान्यता में व्यवहारकारण व्यवहाररूप नहीं रहकर निश्चयरूप हो जाता है। जीव अनादि से व्यवहार को निश्चय मानता आया है. इसलिए यदि शास्त्राभ्यास करने पर भी जीव. व्यवहार का निश्चयरूप मानने का अर्थ करे तो उसे अनादि से चली आ रही भूल मिटती नहीं है। निमित्त के बिना कार्य नहीं होता - ऐसा कथन भी व्यवहार का है; अर्थात् ऐसा नहीं है किन्तु प्रत्येक कार्य के समय उचित निमित्त उपस्थित होता है, यह बतलाने के लिए ऐसा कथन आता है, तथापि यदि निमित्त की आवश्यकता उपादान को पड़ती है अथवा उसकी राह देखनी पड़ती है, अथवा उसकी सहायता की आवश्यकता पड़ती है अथवा निमित्त का प्रभाव पड़ता है या उस निमित्त के बिना उपादान में वास्तव में कार्य नहीं होता - ऐसा माना जाये तो यह सिद्ध होगा कि पर के बिना स्व में कार्य नहीं होता परन्तु प्रत्येक द्रव्य का कार्य अपने-अपने छह कारकों से स्वतन्त्ररूप से होता है। इससे ऐसा निर्णय होता है कि कार्य होते समय निमित्त की उपस्थिति होती है, इतना ज्ञान कराने के लिए उसे दर्शाया गया है। ___ निमित्त से कार्य हुआ - ऐसे कथन जैनशास्त्रों में आते हैं, उन्हें भी व्यवहारनय का ही कथन समझना चाहिए। वहाँ यह अर्थ करना चाहिए कि निमित्त से नैमित्तिक कार्य हआ नहीं है परन्त नैमित्तिक में स्वतन्त्ररूप से कार्य हुआ, उस समय कौन निमित्त था - यह बतलाने के लिए वह कथन किया गया है।
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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