________________ [x] अर्थात् जिस प्रकार किसी अनार्य / म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा के बिना अर्थ ग्रहण कराने में कोई समर्थ नहीं है; उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है, इसलिए व्यवहार का उपदेश है। उसी सूत्र की व्याख्या में कहा है कि - एवं म्लेच्छस्थनीयत्वाजगतो व्यवहारनयोऽपि म्लेच्छ भाषास्था-नीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयः अध च ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनादव्यवहारनयो नानुसतव्यः॥ ___ - इस प्रकार निश्चय को अङ्गीकार कराने के लिए व्यवहार द्वारा उपदेश देते हैं, किन्तु व्यवहारनय है, वह अङ्गीकार करनेयोग्य नहीं है। ____ पुनश्च, श्री कुन्दकुन्दाचार्यरचित श्री समयसार की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने तथा श्री योगीन्द्रदेव रचित श्री परमात्म-प्रकाश की टीका में श्री ब्रह्मदेवजी ने शास्त्रों का अर्थ करने की पद्धति दर्शायी है, जो इसी पुस्तक के आठवें प्रकरण में है। उसमें भी प्रत्येक प्रसङ्ग पर जिस नय का कथन हो, उसका निर्णय करके यथार्थ अर्थ करना चाहिए। (2) निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध इत्यादि निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध वस्तुत: व्यवहारनय का विषय है, इसलिए उसका अर्थ करने में भी विशेष सावधानी रखने की आवश्यकता है क्योंकि निमित्तकारण वास्तविक कारण नहीं है; वह मात्र आरोपित कारण है। प्रत्येक समय प्रत्येक द्रव्य में अनादि से अनन्त काल तक पर्यायें हुआ करती हैं और पर्याय ही कार्य है। कार्य तो वस्तुत: उपादान सदृश होता है परन्तु उस समय जिस पदार्थ पर