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________________ [ix] इसलिए व्यवहारनय का श्रद्धान छोड़कर निश्चयनय का श्रद्धान करना योग्य है। व्यवहारनय, स्वद्रव्य-परद्रव्य को; उनके भावों को तथा कारणकार्यादि को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है; अतः ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व है, इसलिए उसका त्याग करना चाहिए; और निश्चयनय उन्हीं का यथावत निरूपण करता है: किसी को किसी में नहीं मिलाता और ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिए उसका श्रद्धन करना चाहिए। प्रश्न - यदि ऐसा है तो जिनमार्ग में दोनों नयों का ग्रहण करने को कहा है, उसका क्या कारण है ? उत्तर - जिनमार्ग में किसी स्थान पर तो निश्चय की मुख्यतासहित व्याख्यान है, उसे तो 'सत्यार्थ-ऐसा ही है' - ऐसा जानना चाहिए तथा किसी स्थान पर व्यवहारनय की मुख्यतासहित व्याख्यान है, उसे ऐसा नहीं है, किन्तु निमित्तादि की अपेक्षा से यह उपचार किया है' - ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है, किन्तु दोनों नयों के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर 'इस प्रकार भी है तथा इस प्रकार भी है' - ऐसे भ्रमरूप प्रवर्तन से तो दोनों नय ग्रहण करने को नहीं कहा है। प्रश्न - यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है तो जिनमार्ग में उसका उपदेश किसलिए दिया? एक निश्चय का ही निरूपण करना था? उत्तर - ऐसा ही तर्क श्री समयसार में किया है; वहाँ उत्तर दिया है कि - जह णवि सक्कमजो अणजभासं विणा उ माहेउं। तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्क॥8॥
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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