________________ [viii] उत्तर- निश्चयनय द्वारा जो निरूपण किया हो, उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अङ्गीकार करना तथा व्यवहारनय द्वारा जो निरूपण किया हो, उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोड़ना चाहिए। श्री समयसार टीका में भी श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव ने यही कहा है कि - (शार्दूलविक्रीड़ित) सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं, त्याज्यं यदुक्त जिनैस्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः। सम्यनिश्चयमेकमेव तदमी, निष्कम्पमाक्रम्य किं शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे, बध्नति संतो धृतिम्॥ 173 // अर्थात् सर्व वस्तुओं में जो अध्यवसान होते हैं, वे सभी (अध्यवसान) जिन-भगवन्तों ने पूर्वोक्त रीति से त्यागनेयोग्य कहे हैं, इसलिए हम ऐसा मानते हैं कि 'पर जिसका आश्रय है - ऐसा व्यवहार ही सर्व छुड़ाया है' तो फिर, यह सत्पुरुष एक सम्यग्निश्चय को ही निष्कम्परूप से अङ्गीकार करके शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप निज महिमा में (आत्मस्वरूप में) स्थिरता क्यों नहीं करते। भावार्थ - यहाँ व्यवहार का तो त्याग कराया है, इसलिए निश्चय का अङ्गीकार करके निजमहिमारूप प्रवर्तन करना युक्त है। पुनश्च; श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने श्री मोक्षप्राभृत में कहा है कि - जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकजम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे // 13 // अर्थात् - जो व्यवहार में सोते हैं, वे योगी अपने (आत्मधर्मरूप) कार्य में जागते हैं तथा जो व्यवहार में जागते हैं, वे अपने कार्य में सोते हैं।