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________________ [vii] सात तत्त्व; नव पदार्थ; प्रमाण-नय-निक्षेप; अनेकान्तस्याद्वाद; मोक्षमार्ग; गुणस्थान; सर्वज्ञ आदि लिये गए हैं। [1] शास्त्रों के अर्थ की रीति आजकल मुख्यतः जैन शास्त्रों का अर्थ करने के सम्बन्ध में अत्यन्त अज्ञान वर्त रहा है; इसलिए तत्सम्बन्धी कुछ स्पष्टता करने की आवश्यकता है। इसका स्पष्टीकरण श्री प्रवचनसार की 268 वीं गाथा में किया गया है; उसमें दिए गए अर्थ का तत्सम्बन्धी भाव निम्नानुसार है - जिसने शब्द ब्रह्म का और उसके वाच्यरूप समस्त पदार्थों का निश्चयनय से निर्णय किया हो, वह जीव संयत है। उपरोक्त टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव ने स्पष्ट बतलाया है कि शास्त्र में निश्चयनय का कथन हो या व्यवहारनय का - उस सर्व में निश्चयनयानुसार ही अर्थ करना। व्यवहारनय, सत्यस्वरूप का निरूपण नहीं करता, किन्तु किसी अपेक्षा से उपचार से अन्यथा निरूपण करता है। वह संयोग. निमित्तादि का ज्ञान कराने के लिए होता है। यदि व्यवहारनय के कथन का अर्थ उसके शब्दानुसार ही किया जाए तो निश्चय और व्यवहार के कथन परस्पर विरुद्ध होने से विरोध उत्पन्न होगा किन्तु वीतरागी कथन में किसी स्थान पर विरोध हो ही नहीं सकता; इसलिए वह विरोध मिटाने के लिए व्यवहार के कथन का अर्थ 'ऐसा नहीं है किन्तु निमित्तादि की अपेक्ष से यह उपचार किया है' - ऐसा समझना। इस सम्बन्ध में आचार्यकल्प पण्डितप्रवर श्री टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थ में निम्नोक्त शब्दों में स्पष्ट कहा है - प्रश्न - तो क्या करें? [तो नय में क्या समझें?]
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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