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________________ 412 परिशिष्ट-1 : सर्वज्ञता की महिमा नहीं है। उन्होंने अपने आत्मा को ध्येयरूप नहीं बनाया है, किन्तु विषयों को ही ध्येयरूप बनाया है। अपने शुद्ध चैतन्यस्वभाव के अतिरिक्त सर्व पदार्थ परविषय हैं; उनके आश्रय से लाभ माननेवाले को परविषयों की प्रीति है। जो अपने स्वभाव की प्रतीति करता है, उसे किन्हीं परविषयों में सुखबुद्धि नहीं रहती। अहो! मेरे आत्मा में सर्वज्ञता की सामर्थ्य है - ऐसी जिसने प्रतीति की, उसने वह प्रतीति अपनी शक्ति की ओर देखकर की है या पर की ओर देखकर? आत्मा की शक्ति की प्रतीति आत्मा को ध्येय बनाकर होगी या पर को ध्येय बनाकर? किसी निमित्त, राग या अपूर्ण पर्याय के लक्ष्य से पूर्ण शक्ति की प्रतीति नहीं होती है, किन्तु अखण्डस्वभाव के आश्रय से ही पूर्णता की प्रतीति होती है। स्वभाव के आश्रय से पूर्णता की प्रतीति करनेवाले को कहीं भी पर के आश्रय से लाभ की बुद्धि नहीं रहती। __ अरहन्त भगवान जैसी आत्मा की सर्वज्ञशक्ति अपने में भरी है। यदि अरहन्त भगवान की ओर ही देखता रहे और अपने आत्मा की ओर ढलकर निजशक्ति को न संभाले तो मोह का क्षय नहीं होता। जैसे शद्ध अरहन्त भगवान हैं. शक्तिरूप से वैसा ही मैं हूँ इस प्रकार यदि अपने आत्मा की ओर उन्मुख होकर जाने तो सम्यग्दर्शन प्रगट होकर मोह का क्षय होता है। इसलिए परमार्थ से अरिहन्त भगवान इस आत्मा के ध्येय नहीं है, किन्तु अरहन्त जैसे सामर्थ्यवाला अपना आत्मा ही अपना ध्येय है। अरहन्त भगवान की शक्ति उनमें हैं; उनके पास से ही कहीं इस आत्मा की शक्ति नहीं आती; उनके आश्रय से तो राग होता है। प्रभो! तेरी चैतन्य सत्ता के असंख्य प्रदेशी क्षेत्र में अचिन्त्य
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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