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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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ज्ञानस्वभावी आत्मा, संयोगरहित तथा पर में रुकने के भाव से रहित है। किसी अन्य द्वारा उसका मान या अपमान नहीं है। आत्मा का ज्ञानस्वभाव स्वयं अपने से ही परिपूर्ण एवं सुख से भरपूर है।
सर्वज्ञता अर्थात् अकेला ज्ञान... परिपूर्ण ज्ञान । ऐसे ज्ञान से भरपूर आत्मा की प्रतीति करना, वह धर्म की नींव है। धर्म का मूल है।
मुझमें ही सर्वज्ञरूप से परिणमित होने की शक्ति है, उसी से मेरा ज्ञान परिणमित होता है - ऐसा न मानकर, शास्त्रादि निमित्तों के कारण मेरा ज्ञान परिणमित होता है - ऐसा जिसने माना है, उसने संयोग से लाभ माना है। इसलिए उसे संयोग में सुखबुद्धि है क्योंकि जो जिससे लाभ माने, उसे उसमें सुखबुद्धि होती है। चैतन्यबिम्ब स्वतत्त्व के अलावा अन्य से लाभ मानना मिथ्याबुद्धि है।
'मेरा आत्मा ही सर्वज्ञता और परमसुख से भरपूर है' - ऐसी जिसे प्रतीति नहीं है, वह जीव, भोग हेतु धर्म की अर्थात् पुण्य की ही श्रद्धा करता है; चैतन्य के निर्विषय सुख का उसे अनुभव नहीं है, इसलिए गहराई में उसे भोग का ही हेतु विद्यमान है।
सर्वज्ञत्वरूप से परिणमित होने की आत्मा की शक्ति है, उसका आश्रय करने के बदले निमित्त के आश्रय से ज्ञान विकसित होता है - ऐसा जो मानता है, उसकी पाँच इन्द्रियों के विषयों में सुखबुद्धि दूर नहीं हुई; निमित्त और विषय दोनों एक हैं। निमित्त के आश्रय से लाभ माननेवाला या विषयों में सुख माननेवाला, इन दोनों के अभिप्राय की एक ही जाति है; वे आत्मस्वभाव का आश्रय करके परिणमित न होकर, संयोग का आश्रय करके ही परिणमित हो रहे हैं। भले ही शुभभाव हो, तथापि उनके विषयों की रुचि दूर नहीं हुई है और स्वभाव के अतीन्द्रिय सुख की रुचि हुई