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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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निधान भरे हैं; तेरी सर्वशक्ति तेरे ही निधान में विद्यमान है; उसकी प्रतीति करके स्थिरता द्वारा उसे खेर (खन) तो उसमें से तेरी सर्वज्ञता प्रगट हो।
जिस प्रकार पर्णता को प्राप्त ज्ञान में निमित्त का अवलम्बन नहीं है, उसी प्रकार निचलीदशा में भी ज्ञान, निमित्त के कारण नहीं होता; इसलिए वास्तव में पूर्णता की प्रतीति करनेवाला साधक, अपने ज्ञान को परालम्बन से नहीं मानता, किन्तु स्वभाव के अवलम्बन से मानकर स्वोन्मुख करता है।
सर्वज्ञशक्तिवान् अपने आत्मा की ओर देखे तो सर्वज्ञता की प्राप्ति हो सकती है; पर की ओर देखने में आत्मा का कुछ नहीं हो सकता। अनन्त काल तक पर की ओर देखता रहे तो वहाँ से सर्वज्ञता प्राप्त नहीं होगी और निजस्वभाव ओर देखकर स्थिर होने से क्षणमात्र में सर्वज्ञता प्रगट हो सकती है।
सर्वज्ञता प्रगट होने से पूर्व साधकदशा में ही आत्मा की पूर्ण शक्ति की प्रतीति होती है। पूर्ण शक्ति की प्रतीति करके उसका आश्रय लेने से ही साधकदशा प्रारम्भ होकर पूर्णदशा प्रगट होती है।
'अहो! मेरा सर्वज्ञपद प्रगट होने की शक्ति मुझमें वर्तमान ही विद्यमान है!' - इस प्रकार स्वभाव-सामर्थ्य की श्रद्धा करते ही वह अपूर्व श्रद्धा, जीव को बाह्य में उछलकूद करने से रोक देती है और उसके परिणमन को अन्तर्मुख कर देती है। स्वभावोन्मुख हुए बिना सर्वज्ञत्वशक्ति की प्रतीति नहीं होती।
अन्तर्मुख होकर सर्वज्ञत्वशक्ति की प्रतीति करने से उसमें मोक्ष की - धर्म की क्रिया आ जाती है। जो जीव स्वभावोन्मुख होकर उसकी प्रतीति नहीं करता और निमित्त की सन्मुखता से लाभ मानता