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________________ प्रकरण दसवाँ अपने पारिणामिकभाव का आश्रय करता है, तब औदयिकभाव दूर होने का प्रारम्भ होता है और प्रथम श्रद्धागुण का औदयिकभाव दूर होता है - ऐसा औपशमिकभाव सिद्ध करता है । 386 (7) यदि जीव अप्रतिहतभाव से पुरुषार्थ में आगे बढ़े तो चारित्रमोह स्वयं दब जाता है। (उपशमभाव को प्राप्त होता है) ऐसा भी औपशमिकभाव सिद्ध करता है। - (8) प्रतिहत पुरुषार्थ द्वारा पारिणामिकभाव का आश्रय बढ़ने पर विकार का नाश हो सकता है - ऐसा क्षायिकभाव सिद्ध करता है । (9) यद्यपि कर्म के साथ का सम्बन्ध, प्रवाह से अनादिकालीन है, तथापि प्रति समय पुराने कर्म जाते हैं और नये कर्मों का सम्बन्ध होता रहता है, उस अपेक्षा से उसमें प्रारम्भिकता रहने से (सादि होने से ) वह कर्मों के साथ का सम्बन्ध सर्वथा दूर हो जाता है ऐसा क्षायिकभाव सिद्ध करता है। (10) कोई निमित्त विकार नहीं कराता, किन्तु जीव स्वयं निमित्ताधीन होकर विकार करता है। जीव जब पारिणामिकभावरूप अपने स्वभाव की ओर का लक्ष्य करके स्वाधीनता प्रगट करता है, तब निमित्ताधीनता दूर होकर शुद्धता प्रगट होती है - ऐसा औपशमिक, साधकदशा का क्षायोपशमिक और क्षायिकभाव - यह तीनों सिद्ध करते हैं । प्रश्न 62 - औपशमिकभाव के कितने भेद हैं ? उत्तर- औपशमिकभाव के दो भेद हैं- (1) सम्यक्त्वभाव और (2) चारित्रभाव ।
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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