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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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हुए हैं; इसलिए निर्वाण का अन्य (कोई ) मार्ग नहीं है - ऐसा निश्चित होता है। __ (4) श्री नियमसार गाथा 90, कलश 121 में कहा है कि - 'जो मोक्ष का किञ्चित् कथनमात्र (कहनेमात्र) कारण है, उसे अर्थात् व्यवहाररत्नत्रय को भी भवसागर में डूबे हुए जीव ने पहले भव-भव में (अनेक भव में) सुना है और उस पर आचरण किया है परन्तु अरे रे! खेद है कि जो सर्वदा एक ज्ञान है, उसे अर्थात् जो सदैव एक ज्ञानस्वरूप ही है - ऐसे परमात्म तत्त्व को जीव ने सुना-आचरा नहीं है।'
(1) श्री नियमसार गाथा 109 कलश 155 में कहा है कि - 'जिसने ज्ञानज्योति द्वारा पाप तिमिर के पुञ्ज का नाश किया है और जो पुराण / सनातन है - ऐसा आत्मा, परम संयमी जनों के चित्त कमल में स्पष्ट है। वह आत्मा, संसारी जीवों के वचन-मनोमार्ग से अतिक्रान्त अर्थात् वचन और मन के मार्ग से अगोचर है। इन निकट परम पुरुष में विधि क्या? और निषेध क्या?
एवमनेन पद्येन व्यवहारालोचनाप्रपंचमुपहसति किल परमजिनयोगीश्वरः।
- इस प्रकार पद्य द्वारा परम जिन योगीश्वरों ने वास्तव में व्यवहार-आलोचना के प्रपंच का उपहास (हँसी, ठट्ठा, तिरस्कार) किया है।'
(6) श्री नियमसार गाथा 3 में कहा है कि -
'नियम अर्थात् नियम से (निश्चित्) जो करने योग्य हो अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्र। विपरीत के परिहारार्थ अर्थात् ज्ञान,