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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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प्रश्न 35 - यदि ऐसा है तो जिनमार्ग में दोनों नयों के ग्रहण करने को कहा है, उसका क्या कारण हैं ?
उत्तर - (1) जिनमार्ग में कहीं तो निश्चयनय की मुख्यतासहित व्याख्यान है; उसे तो 'सत्यार्थ ऐसा ही है' - ऐसा जानना चाहिए तथा किसी स्थान पर व्यवहारनय की मुख्यतासहित व्याख्यान है। उसे 'ऐसा नहीं है, किन्तु निमित्तादिकी अपेक्षा से यह उपचार किया है' - ऐसा जानना चाहिए और इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है, किन्तु दोनों नयों के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर 'इस प्रकार भी है और उस प्रकार भी है' - ऐसे भ्रमरूप प्रवर्तन से तो दोनों नयों का ग्रहण करना नहीं कहा है।
(मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 249) (2) श्री समयसार गाथा 276-77 की टीका में कहा है कि - 'आचाराङ्ग आदि शब्दश्रुत, वह ज्ञान है क्योंकि वह (शब्दश्रुत) ज्ञान का आश्रय है। जीवादि नव पदार्थ, दर्शन है क्योंकि वह (नव पदार्थ) दर्शन का आश्रय है और छह जीव निकाय चारित्र है, क्योंकि वह (छह जीव निकाय) चारित्र का आश्रय है; इस प्रकार व्यवहार है। शुद्ध आत्मा, ज्ञान है क्योंकि वह (शुद्ध आत्मा) ज्ञान का आश्रय है; शुद्ध आत्मा, दर्शन है क्योंकि वह दर्शन का आश्रय है और शुद्ध आत्मा, चारित्र है क्योंकि वह चारित्र का आश्रय है;इस प्रकार निश्चय है। उनमें व्यवहारनय प्रतिषेध्य अर्थात् निषेध्य है; क्योंकि आचाराङ्ग आदि को ज्ञानादि का आश्रयपना अनेकान्तिक है - व्यभिचारयुक्त है; (शब्दश्रुत आदि को ज्ञानादि के आश्रयरूप मानने में व्यभिचार आता है, क्योंकि शब्दश्रुत आदि होने पर भी