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प्रकरण दसवाँ
स्वयं दर्शनमोह का उपशम होता है। दर्शनमोह के उपशमादि में जीव का कर्तव्य कुछ भी नहीं है। पुनश्च, तत्पश्चात् ज्यों-ज्यों जीव स्वसन्मुखता द्वारा वीतरागता में वृद्धि करता है, त्यो-त्यों उसके चारित्रमोह का अभाव होता है और ऐसा होने से उस जीव के नग्न दिगम्बर दशा, 28 मूलगुण तथा भावलिङ्गी मुनिपना प्रगट होता है। उस दशा में भी जीव अपने ज्ञायकस्वभाव में रमणतारूप पुरुषार्थ द्वारा धर्मपरिणति को बढ़ाता है, वहाँ परिणाम सर्वथा शुद्ध होने पर केवलज्ञान और मोक्षदशारूप सिद्धपद प्राप्त करता है।
प्रश्न 17 - जिसे जानने से मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति हो, वे अवश्य जानने योग्य-प्रयोजनभूत क्या-क्या है ?
उत्तर - सर्वप्रथम - (1) हेय-उपादेय तत्त्वों की परीक्षा करना।
(2) जीवादि द्रव्य, सात तत्त्व तथा सुदेव-गुरु-धर्म को पहिचानना।
(3) त्यागने योग्य मिथ्यात्व-रागादिक, तथा ग्रहण करने योग्य सम्यग्दर्शन-ज्ञानादिक का स्वरूप जानना।
(4) निमित्त-नैमित्तिक आदि को जैसे हैं, वैसा ही जानना इत्यादि जिनके जानने से मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति हो, उन्हें अवश्य जानना चाहिए क्योंकि वे प्रयोजनभूत हैं।
प्रश्न 18 - देव-गुरु-धर्म तथा सत् शास्त्र और तत्वादि का निर्धार न करे तो नहीं चल सकता?
उत्तर - उनके निर्धार बिना किसी प्रकार मोक्षमार्ग नहीं होता - ऐसा नियम है।