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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला कि जिससे भ्रम दूर हो। यदि निर्णय करने का पुरुषार्थ करे तो भ्रम का निमित्तकारण जो मोहकर्म, उसका भी उपशम हो जाये और भ्रम दूर हो क्योंकि तत्त्वनिर्णय करते हुए परिणामों की विशुद्धता होती है और मोह के स्थिति - अनुभाग भी कम हो जाते हैं। [ मोक्षमार्गप्रकाशक (दिल्ली प्रकाशन) के आधार पर पृष्ठ 457 ] प्रश्न 16 - सम्यग्दर्शन प्रगट न होने में निमित्तकारण दर्शनमोह है और चारित्र प्रगट न होने में निमित्तकारण चारित्रमोह है, उसका अभाव हुए बिना जीव, धर्म कैसे कर सकेगा ? इसलिए धर्म न होने में जड़कर्म का दोष है न ? 365 उत्तर - नहीं; अपने विपरीत पुरुषार्थ का ही दोष है। यदि यथार्थ पुरुषार्थपूर्वक तत्त्वनिर्णय करने में उपयोग लगाये तो स्वयमेव मोह का अभाव होता है और मोक्ष के उपाय का पुरुषार्थ बनता है; इसलिए प्रथम ही तत्त्वनिर्णय में उपयोग लगाने का पुरुषार्थ करना चाहिए। उपदेश भी उसी पुरुषार्थ के हेतु दिया जाता है और उस पुरुषार्थ से मोक्ष के उपाय के पुरुषार्थ की सिद्धि अपने आप होती है। तत्त्वनिर्णय करने में कर्म का कोई दोष नहीं है, किन्तु जीव का ही दोष है। जो जीव, कर्म का दोष निकालता है, वह अपना दोष होने पर भी कर्म पर दोष डालता है - यह अनीति है । श्री सर्वज्ञ भगवान की आज्ञा माने, उसके ऐसी अतीति नहीं हो सकती । जिसे धर्म करना अच्छा नहीं लगता, वही ऐसा झूठ बोलता है । जिसे मोक्षसुख की सच्ची अभिलाषा है, वह ऐसी झूठी युक्ति नहीं बनायेगा । जीव का कर्तव्य तो तत्त्वज्ञान का अभ्यास ही है और उसी से
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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