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प्रकरण दसवाँ
(3) प्रत्येक वस्तु सदैव अपना कार्य कर सकती है और पर का कार्य नहीं कर सकती - ऐसी भिन्नता न मानकर, उपादाननिमित्त साथ मिलकर कार्य करते हैं - ऐसा माना; इस प्रकार दोनों की अभिन्नता के कारण उसके भेदाभेदविपरीतता हुई।
प्रश्न 14 - द्रव्यलिङ्गी मिथ्यादृष्टि मुनि की धर्म-साधना में अन्यथापना है?
उत्तर - द्रव्यलिङ्गी मुनि, विषय-सुखादि के फल नरकादि हैं, शरीर अशुचिमय है, विनाशीक है, पोषण करने योग्य नहीं है तथा कुटुम्बादिक स्वार्थ के सगे हैं - इत्यादि परद्रव्यों के दोष विचार कर उनका त्याग करता है; तथा व्रतादि का फल स्वर्गमोक्ष है, तपश्चरणादि पवित्र फल के देनेवाले हैं, उनके द्वारा शरीर शोषण करने योग्य है, तथा देव-गुरु-शास्त्रादि हितकारी हैं - इत्यादि परद्रव्यों के गुण विचारकर उन्हीं को अङ्गीकार करता है।
इत्यादि प्रकार से किन्हीं परद्रव्यों को बुरा जानकर अनिष्टरूप श्रद्धान करता है तथा किन्हीं परद्रव्यों को अच्छा मानकर इष्टरूप श्रद्धान करता है; परन्तु परद्रव्यों में इष्ट-अनिष्टरूप श्रद्धान करना, वह मिथ्यात्व है और उसी श्रद्धान से उसे उदासीनता भी द्वेषबुद्धिरूप होती है, क्योंकि किसी को बुरा जानने का नाम ही द्वेष है।
प्रश्न 15 - द्रव्यलिङ्गी मुनि आदि को भ्रम होता है, उसका कारण कोई कर्म ही होगा न? वहाँ पुरुषार्थ क्या करे ? ___ उत्तर - नहीं; वहाँ कर्म का दोष नहीं है। सच्चे उपदेश द्वारा निर्णय करने से भ्रम दूर होता है, किन्तु वे सच्चा पुरुषार्थ नहीं करते