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प्रकरण दसवाँ
प्रश्न 8 - यदि पुरुषार्थ से ही धर्म होता है, तब तो द्रव्यलिङ्गी मुनि ने मोक्ष के हेतु गृहस्थपना छोड़कर बहुत पुरुषार्थ किया; फिर भी उसे कार्यसिद्धि क्यों नहीं हुई?
उत्तर - उसने विपरीत पुरुषार्थ किया है। विपरीत पुरुषार्थ करके मोक्षफल की कामना करे, तो कैसे फल सिद्ध हो ? नहीं हो सकता। पुनश्च, तपश्चरणादि व्यवहार साधन में अनुरागी होकर प्रवर्तन का फल तो शास्त्र में शुभबन्ध कहा है और द्रव्यलिङ्गी मुनि 'व्यवहार साधन से धर्म होगा' - ऐसा मानकर उसमें अनुरागी होता है और उससे मोक्ष की कामना करता है तो वह कैसे हो सकता है ?
व्यवहार साधन करते-करते निश्चय धर्म हो जायेगा - ऐसा मानना तो एक भ्रम है।
प्रश्न 9 - हजारो शास्त्रों का अभ्यास करे, व्रतादि का पालन करे, तथापि द्रव्यलिङ्गी मिथ्यादृष्टि को स्व-पर के स्वरूप यथार्थ निर्णय क्यों नहीं होता ?
उत्तर- (1) वह जीव अपने ज्ञान में से कारणविपरीतता, स्वरूपविपरीतता और भेदाभेदविपरीतता को दूर नहीं करता; इसलिए उसे स्व-पर के स्वरूप का सच्चा निर्णय नहीं होता ।
(2) तत्त्वज्ञान का अभाव होने से उसके शास्त्रज्ञान को अज्ञान कहते हैं।
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(3) अपना प्रयोजन नहीं साधता, इसलिए उसी को कुज्ञान कहते हैं ।
(4) प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों का यथार्थ निर्णय करने में