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प्रकरण नववाँ
इच्छा करता है, उसे अर्पित विवक्षित कहते हैं, और वक्ता उस समय जिस धर्म का कथन नहीं करना चाहता, वह अनर्पितअविवक्षित है; जैसे कि वक्ता यदि द्रव्यार्थिकनय से वस्तु का प्रतिपादन करेगा तो ‘नित्यता' विवक्षित कहलायेगी, और यदि वह पर्यायार्थिकनय से प्रतिपादन करेगा तो 'अनित्यता' विवक्षित है । जिस समय किसी पदार्थ को द्रव्य की अपेक्षा से 'नित्य' कहा जा रहा है, उस समय वह पदार्थ पर्याय की अपेक्षा से अनित्य भी है। पिता, पुत्र, मामा, भानजा आदि की भाँति एक ही पदार्थ में अनेक धर्म रहने पर भी विरोध नहीं आता ।
(तत्त्वार्थसूत्र (हिन्दी अनुवाद पं. पन्नालालजी) अध्याय 5, सूत्र 32 का अर्थ ) प्रश्न 17 – आत्मा स्वचतुष्टय से है और पर चतुष्टय नहीं है - ऐसे अनेकान्त सिद्धान्त से क्या समझना ?
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उत्तर
(1) कोई आत्मा या उसकी पर्याय, पर का कुछ कर नहीं सकते, करा नहीं सकते - असर, प्रभाव, प्रेरणा, मददसहायकता, लाभ-हानि आदि कुछ भी नहीं कर सकते क्योंकि प्रत्येक वस्तु, पर वस्तु की अपेक्षा से अवस्तु है, अर्थात् वह अक्षेत्र, अकाल और अभावरूप है। प्रत्येक द्रव्य की पर्याय दूसरे द्रव्य की पर्याय के प्रति निमित्तरूप होती है, किन्तु उससे वह परद्रव्य की पर्याय को प्रभावित नहीं कर सकती; परद्रव्य का असर किसी में नहीं है ।
अद्रव्य,
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(2) यह सिद्धान्त छहों द्रव्यों को लागू होता है। एक परमाणु भी दूसरे पुद्गलों का - पुद्गल की पर्यायों का या शेष किन्हीं द्रव्यों का कुछ कर-करा नहीं सकता या उन पर असर, प्रभावादि नहीं डाल सकता |