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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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(3) एक वस्तु में वस्तुपने को सिद्ध करनेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना, वह अनेकान्त है। जैसे कि - जो वस्तु सत् है, वही असत् है अर्थात् जो अस्ति है, वह नास्ति है; जो एक है, वही अनेक है; जो नित्य है, वही अनित्य है आदि।
(समयसार, कलश 247 का भावार्थ) [शास्त्र में कोई भी कथन किया हो, उसके निम्नोक्तानुसार अर्थ करना -
प्रथम शब्दार्थ करके वह कथन किस नय से किया है वह निश्चित करना चाहिए। उसमें जो कथन जिस नय से किया हो वह कथन अर्पित' है - ऐसा समझना चाहिए और सिद्धान्तानुसार गौणरूप से अन्य जो भाव उसमें गर्भितरूप से आ जाते हैं, वे भाव यद्यपि वहाँ शब्दों में नहीं कहे हैं, तथापि वे भाव भी गर्भितरूप से कहे हैं - ऐसा समझ लेना चाहिए, यह 'अनर्पित' कथन है।
इस प्रकार अर्पित और अनर्पित - दोनों पक्षों को समझ कर जो जीव अर्थ करे उसी जीव को प्रमाण और नय का सत्य ज्ञान होता है। यदि दोनों पक्ष यथार्थ न समझे तो उसका ज्ञान अज्ञानरूप परिणमित हुआ है; इसलिए उसका ज्ञान अप्रमाण और कुनयरूप
(मोक्षशास्त्र, अध्याय 5, सूत्र 32 की टीका) प्रश्न 16 - एक ही द्रव्य में नित्यता और अनित्यता - यह दोनों विरुद्ध धर्म किस प्रकार रहते हैं ?
उत्तर - विवक्षित और अविवक्षितरूप से एक ही द्रव्य में नाना (भिन्न) धर्म रहते हैं । वक्ता जिस धर्म का कथन करने की