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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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होने पर स्वयं उत्पन्न हुआ तथा शरीर का नाश होने पर स्वयं का नाश हुआ - ऐसा मानता है। इस प्रकार उसे 'जीवतत्त्व' और 'अजीवतत्त्व' की विपरीत श्रद्धा होती है।
उस विपरीत श्रद्धा के कारण वह ऐसी मान्यता करता है कि - जीव, शरीर के कार्य-हलन-चलन, उठाना-बैठाना, सुलाना शरीर की सम्भाल आदि कर सकता है। जीवतत्त्व सम्बन्धी यह विपरीत श्रद्धा, आस्ति-नास्ति भंग के यथार्थ ज्ञान द्वारा दूर होती है।
शरीर स्वस्थ हो तो जीव को लाभ होता है, अस्वस्थ हो तो हानि होती है; शरीर अच्छा हो तो जीव धर्म कर सकता है, खराब हो तो नहीं कर सकता - इत्यादि प्रकार से वह अजीवतत्त्व सम्बन्धी विपरीत श्रद्धा करता रहता है; यह भूल भी अस्ति-नास्ति के भङ्ग के यथार्थ ज्ञान द्वारा दूर होती है।
जीव, जीव से अस्तिरूप है और पर से अस्तिरूप नहीं है, किन्तु नास्तिरूप है - ऐसा जब यथार्थरूप से ज्ञान में निश्चित् करता है, तब प्रत्येक तत्त्व यथार्थतया भासित होता है और जीव, परद्रव्यों को पूर्णतः अकिञ्चित्कर है तथा परद्रव्य, जीव को पूर्णत: अकिञ्चित्कर है क्योंकि एक द्रव्य, दूसरे द्रव्यरूप से नास्तिरूप है - ऐसा विश्वास होता है और उससे जीव पराश्रयी -परालम्बीपना मिटाकर स्वाश्रयी-स्वावलम्बी होता है। वही धर्म का प्रारम्भ है।
जीव का पर के साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कैसा है? - उसका ज्ञान इन दो भङ्गों द्वारा किया जा सकता है। निमित्त, वह परद्रव्य होने से नैमित्तिक जीव का कुछ नहीं कर सकता; मात्र आकाश प्रदेश में एक क्षेत्रावगाहरूप में या संयोगदशारूप