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प्रकरण नववाँ
(4) अनेकान्त, वस्तु को एक-अनेक स्वरूप बतलाता है। 'एक' कहते ही 'अनेक' की अपेक्षा आ जाती है। तू अपने में एक है और अपने में ही अनेक हैं। अपने गुण-पर्याय से अनेक हैं, वस्तु से एक हैं।
(5) अनेकान्त, वस्तु को नित्य-अनित्य स्वरूप बतलाता है। स्वयं नित्य और स्वयं ही पर्याय से अनित्य है; उसमें जिस और की रुचि उस ओर का परिवर्तन (परिणाम) होता है। नित्य वस्तु की रुचि करे तो नित्य स्थायी ऐसी वीतरागता होती है और अनित्य पर्याय की रुचि करे तो क्षणिक राग-द्वेष होते हैं।
(6) अनेकान्त प्रत्येक वस्तु की स्वतन्त्रता घोषित करता है। वस्तु स्व से है और पर से नहीं है - ऐसा कहा उसमें 'स्व अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु परिपूर्ण ही है' - यह आ जाता है। वस्तु को पर की आवश्यकता नहीं है, अपने से ही स्वयं स्वाधीन परिपूर्ण है।
(7) अनेकान्त प्रत्येक वस्तु में अस्ति-नास्ति आदि दो विरुद्ध शक्तियाँ बतलाता है। एक वस्तु में वस्तुपने को सिद्ध करनेवाली दो विरुद्ध शक्तियाँ होकर ही तत्त्व की पूर्णता है - ऐसी दो विरुद्ध शक्तियों का होना वह वस्तु का स्वभाव है।
(मोक्षशास्त्र, अध्याय 4 का उपसंहार) प्रश्न 14 - साधक जीव को अस्ति-नास्ति के ज्ञान से क्या लाभ?
उत्तर - ‘जीव स्व-रूप से है और पर-रूप से नहीं है' - ऐसी अनादि की वस्तु स्थिति होने पर भी, जीव अनादि से अविद्या के कारण से शरीर को अपना मानता है और इसलिए शरीर उत्पन्न