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प्रकरण नववाँ
(अवक्तव्य हैं), इसलिए यह भङ्ग 'स्यात् नास्ति अवक्तव्य' कहलाता है।
सातवाँ भङ्ग - स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य।
जीवः स्याद् अस्ति-नास्ति-अवक्तव्यम् एव। जीव क्रम से स्वरूप-पररूप की अपेक्षा से अस्ति-नास्ति और स्वरूपपररूप के युगपद्पने की अपेक्षा से अवक्तव्य ही है। ___'स्यात् अस्ति' और 'स्यात् नास्ति' - इन दोनों भङ्ग द्वारा जीव क्रम से वक्तव्य है, किन्तु युगपद् वक्तव्य नहीं है, इसलिए यह भङ्ग अस्ति-नास्ति अवक्तव्य कहलाता है। __[स्यावाद समस्त वस्तुओं के स्वरूप को साधनेवाला अर्हत् सर्वज्ञ का अस्खलित शासन है । वह ऐसा उपदेश देता है कि सब अनेकान्तात्मक है। वह वस्तु के स्वरूप का यथार्थ निर्णय कराता है। वह संशयवाद नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि स्याद्वाद वस्तु का नित्य तथा अनित्यादि दो प्रकार से दोनों पक्ष से कहता है, इसलिए संशय का कारण है परन्तु वह मिथ्या है। अनेकान्त में तो दोनों पक्ष निश्चित हैं; इसलिए वह संशय का कारण नही हैं।] (श्री प्रवचनसार गाथा 115 की टीका; मोक्षमाशास्त्र (प्रकाशक स्वा० म०) अ.4 का उपसंहार, तथा स्वामी कार्तिकेयनुप्रेक्षा, गाथा 311-12 का भावार्थ)
प्रश्न 11 - सिद्ध भगवान को किसी अपेक्षा से सुख का प्रगटपना तथा किसी अपेक्षा से दुःख का प्रगटपना मानना - यह अनेकान्त सिद्धान्तानुसार ठीक है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि वास्तव में गुण और पर्याय - इन दोनों में गौण और मुख्य व्यवस्था की अपेक्षा से ही अनेकान्त प्रमाण माना गया है; सुख और दुःख दोनों पर्याय हैं, इसलिए पर्यायरूप से