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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला से है और पररूप की अपेक्षा से है ही नहीं । जीव में विधिनिषेधरूप दोनों धर्म एक ही साथ होने पर वे वचन द्वारा क्रम से कहे जाते है । 349 चौथा भङ्ग - स्यात् अवक्तव्य । जीवः स्याद् अवक्तव्यम् एव । जीव स्वरूप - पररूप के युगपद्पने की अपेक्षा से अवक्तव्य ही है। I जीव में अस्ति और नास्ति दोनों धर्म एक काल में होते हैं; तथापि वचन द्वारा एक काल में (युगपद्) उन्हें कहना अशक्य है, इसलिए वे किसी प्रकार से अवक्तव्य हैं। पाँचवाँ भङ्ग - स्यात् अस्ति अवक्तव्य । जीवः स्याद् अस्ति अवक्तव्यम् एव । जीव, स्वरूप की अपेक्षा से अस्ति और स्वरूप- पररूप के युगपद्पने की अपेक्षा से अवक्तव्य ही है। जीव का स्वरूप जिस समय 'अस्ति' से कहा जा सके, उस समय नास्ति तथा अन्य धर्म आदि युगपद् नहीं कहे जा सकते; इसलिए यह भङ्ग 'स्यात् अस्ति अवक्तव्य' कहलाता है। छठवाँ भङ्ग - स्यात् नास्ति अवक्तव्य । जीवः स्याद् नास्ति अवक्तव्यम् एव । जीव, पररूप की अपेक्षा से नास्ति और स्वरूप- पररूप के युगपद्पने की अपेक्षा से स्यात् नास्ति अवक्तव्य ही है। जीव का स्वरूप जिस समय 'नास्ति' से कहा जा सके, उस समय' आस्ति' तथा अन्य धर्म आदि युगपद् नहीं कहे जा सकते;
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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