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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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का सम्यक्प से उपयोग होता है। 'स्यात्' पद एकान्तवाद में भरे हुए समस्त विरोधीरूपी विष के भ्रम को नष्ट करने में रामवाण मन्त्र है।
...अनेकान्त वस्तुस्वभाव का लक्ष्य चूके बिना, जिस अपेक्षा से वस्तु का कथन चल रहा हो, उस अपेक्षा से, उसका निर्णीतपनानियमबद्धपना-निरपवादपना बतलाने के लिए जिस ‘एव' या 'ही' शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसका वहाँ निषेध नहीं समझाना।
(श्री प्रवचनसार गाथा 115 का फुटनोट) (4) पदार्थों में अनन्त धर्म हैं और वे सब एक साथ एक ही समय में होते हैं, कोई आगे-पीछे नहीं होता परन्तु वचन से तो एक बार एक ही धर्म का कथन हो सकता है. सबका कथन एक साथ नहीं हो सकता; इस कारण अपेक्षावाची शब्द 'स्यात्' या कथञ्चित्' न लगाया जाए तो विवक्षित पदार्थ का एक विवक्षित धर्म ही समझा जा सकेगा और अन्य समस्त धर्मों का लोप हो जाएगा - ऐसी दशा में पदार्थ का पूर्ण स्वरूप समझ में नहीं आयेगा या अधूरा ही समझ में आयेगा, किन्तु वस्तु का स्वरूप ऐसे नहीं है; इसलिए ऐसा कथन एकान्त कथन हो जाएगा। ऐसे एकान्त कथन को मिथ्या एकान्त कहा है। (आलाप पद्धति हिन्दी अनुवाद, पृष्ठ 49-50)
(5) आप्तमीमांसा की 111 वीं कारिका के व्याख्यान में श्री अकलंकदेव कहते हैं कि वचन का ऐसा स्वभाव है कि स्व विषय का अस्तित्व दिखलाने पर वह उससे अन्य का (परवस्तु का) निराकरण करता है, इसलिए अस्तित्व और नास्तित्व इन दो मूल धर्मों के आश्रय से सप्तभंङ्गीरूप स्याद्वाद की सिद्धि होती है।
(तत्त्वार्थसार, पृष्ठ - 125 फुटनोट)