SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 344 प्रकरण नववाँ आत्मा को शुद्धभाव से धर्म होता है और शुभभाव से भी धर्म होता है - ऐसा जानना, वह मिथ्या अनेकान्त है। (4) निश्चय के आश्रय से धर्म होता है और व्यवहार के आश्रय से धर्म नहीं होता - ऐसा जानना, वह सम्यक् अनेकान्त है । निश्चय के आश्रय से धर्म होता है और व्यवहार के आश्रय से थी धर्म होता है - ऐसा समझना, वह मिथ्या अनेकान्त है। - (5) व्यवहार का अभाव होने पर निश्चय प्रगट होता है ऐसा जानना, वह सम्यक् अनेकान्त है। व्यवहार करते-करते निश्चय प्रगट होता है - ऐसा जानना, वह मिथ्या अनेकान्त है । (6) आत्मा को अपनी शुद्धक्रिया से लाभ होता है और शरीर की क्रिया से लाभ या हानि नहीं होते - ऐसा समझना, वह सम्यक् अनेकान्त है। आत्मा को अपनी शुद्धक्रिया से लाभ होता है और शरीर की क्रिया से भी लाभ होता है - ऐसा जानना, वह मिथ्या अनेकान्त है । (7) एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो शक्तियाँ (सत्-असत्, तत्-अतत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि) प्रकाशित होकर वस्तु को सिद्ध करें, वह सम्यक् अनेकान्त है । एक वस्तु में दूसरी की शक्ति प्रकाशित होकर, एक वस्तु दो वस्तुओं का कार्य करती है - ऐसा मानना, वह मिथ्या अनेकान्त है; अथवा तो सम्यक् अनेकान्त से वस्तु का जो स्वरूप निश्चित् है, उससे विपरीत वस्तु-स्वरूप की मात्र कल्पना करके उसमें न
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy