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प्रकरण आठवाँ
___ (2) जीव को पर का कर्ता-भोक्ता माना जाये तो भ्रम होता है। व्यवहार से भी जीव, पर का कर्ता-भोक्ता नहीं है। व्यवहार से आत्मा (जीव) राग का कर्ता-भोक्ता है, क्योंकि राग वह अपनी पर्याय का भाव है, इसलिए उसमें तद्गुणसंविज्ञान लक्षण लागू होता है। जो उससे विरुद्ध कहे, वह नयाभास (मिथ्यानय) है। प्रथम नयाभास (1) जीव को वर्णादि युक्त मानना।
(पञ्चाध्यायी भाग 1, गाथा 563) (2) मनुष्य इत्यादि शरीर हैं, वे ही जीव हैं - ऐसा जानना।
(गाथा 567-68) (3) मनुष्य शरीर, जीव के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप से हैं, इसलिए एक है - ऐसा मानना।
(गाथा 569) (4) शरीर और आत्मा को बन्ध्य-बन्धकभाव मानना।
(गाथा 570) (5) शरीर और आत्मा को निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध प्रयोजनवान नहीं है क्योंकि स्वयं और स्वतः परिणमित होनेवाली वस्तु को पर के निमित्त से क्या लाभ? (कोई लाभ नहीं।)
(गाथा 571) दूसरा नयाभास
(1) जीव और जड़ कर्म भिन्न-भिन्न द्रव्य होने से तथा उनके परस्पर गुणों को (पर्यायों का) संक्रमण न हो सकने से, जीव, कर्म -नोकर्म (शरीरादि) या किसी मूर्तिक वस्तु का कर्ताभोक्ता नहीं हो सकता, तथापि उसमें नय लागू करना, वह नयाभास है - मिथ्यानय है।
(गाथा 572)