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________________ 330 प्रकरण आठवाँ तो व्यवहार ही निश्चयपने को प्राप्त है ( वह व्यवहार को ही निश्चय मान लेता है । ) (8) व्यवहारनय म्लेच्छ भाषा के स्थान पर है, इसलिए परमार्थ का प्रतिपादक (कथन करनेवाला) होने से व्यवहारनय स्थापन करने योग्य है तथा ब्राह्मण को म्लेच्छ नहीं होना चाहिए - इस वचन से वह (व्यवहारनय) अनुसरण करने योग्य नहीं है । (मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 252-253 ) प्रश्न 66 - व्रत, शील, संयमादि तो व्यवहार हैं या नहीं ? उत्तर- (1) कहीं व्रत, शील, संयमादिक का नाम व्यवहार नहीं है, किन्तु उन्हें (व्रतादि को) मोक्षमार्ग मानना वह व्यवहार है। - यह (मान्यता) छोड़ दे। पुनश्च, ऐसे श्रद्धान से उन्हें तो बाह्य सहकारी जानकर, उपचार से मोक्षमार्ग कहा है किन्तु वे तो पर द्रव्याश्रित हैं और सच्चा मोक्षमार्ग वीतरागभाव है, वह स्वद्रव्याश्रित है । इस प्रकार व्यवहार को असत्यार्थ- हेय समझना । (मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ 254 ) (2) निचली दशा में किन्हीं जीवों के शुभोपयोग और शुद्धोपयोग का युक्तपना होता है, इसलिए उस व्रतादि शुभोपयोग को उपचार से मोक्षमार्ग कहा है, किन्तु वस्तु विचार से देखते हुए शुभोपयोग मोक्ष का घातक है। - इस प्रकार जो बन्ध का कारण है, वही मोक्ष का घातक है - ऐसा श्रद्धान करना चाहिए । शुद्धोपयोग को ही उपादेय मानकर उसका उपाय करना तथा शुभोगपयोगअशुभोपयोग को हेय जानकर उसके त्याग का उपाय करना चाहिए और जहाँ शुद्धोपयोग न हो सके, वहाँ अशुभोपयोग को छोड़कर शुभ में ही प्रवर्तन करना चाहिए, क्योंकि शुभोपयोग से अशुभोपयोग
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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