________________
श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
में अशुद्धता की अधिकता है; शुद्धोपयोग हो, तब तो वह परद्रव्य का साक्षीभूत ही रहता है, इसलिए वहाँ तो किसी परद्रव्य का प्रयोजन ही नहीं है... (मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 245 )
331
(3) शुभक्रिया से धर्म मानना, वह अज्ञानता है; उस क्रिया से बन्ध होता है और उसके फलस्वरूप अनुकूल / अच्छे संयोग मिलते हैं, किन्तु उससे संसार का अन्त नहीं आता, वह तो बना ही रहता है क्योंकि परमात्मप्रकाश अध्याय - 2, गाथा 57 की टीका में कहा है कि -... इन्द्रियों के भोग की इच्छारूप निदान बन्धपूर्वक ज्ञान, तप, दानादिक से उपार्जित किया हुआ पुण्यकर्म हेय है, निदानबन्ध से उपार्जन किये हुए पुण्यकर्म जीव को दूसरे भव में राज्यवैभव की प्राप्ति कराता है । उस राज्य विभूति को प्राप्त करके अज्ञानी जीव विषयभोग को नहीं छोड़ सकता (इन्द्रिय विषयों में लीन रहता है), इसलिए वह रावण की भाँति नरकादि के दुःख प्राप्त करता है । इस कारण पुण्य हेय है....
(4) पुनश्च, कोई ऐसा मानता है कि शुभोपयोग है, वह शुद्धोपयोग का कारण है । अब, वहाँ जिस प्रकार अशुभोपयोग छूटकर शुभोपयोग होता है, उसी प्रकार शुभोपयोग छूटकर शुद्धोपयोग होता है - ऐसा ही यदि कारण- कार्यपना हो तो शुभोपयोग का कारण अशुभोपयोग भी सिद्ध होगा; अथवा द्रव्यलिङ्गी को शुभोपयोग
उत्कृष्ट होता है, जबकि शुद्धोपयोग होता ही नहीं, इसलिए वास्तविकरूप से उन दोनों में कारण कार्यपना नहीं है । जैसे किसी रोगी को महान रोग था और फिर वह अल्प रह गया तो वहाँ वह अल्प रोग कहीं निरोग होने का कारण नहीं है; हाँ, इतना