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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
(6) ... जहाँ तक निश्चयनय से प्ररूपित वस्तु को न पहिचाने, वहाँ तक व्यवहार मार्ग द्वारा वस्तु का निश्चय करे, इसलिए निचली दशा में व्यवहानय अपने को भी कार्यकारी है परन्तु व्यवहार को उपचारमात्र मानकर यदि उसके द्वारा वस्तु का यथार्थ निर्णय करे तो कार्यकारी हो, किन्तु यदि निश्चय की भाँति व्यवहार को भी सत्यभूत मानकर 'वस्तु ऐसी ही है' - ऐसा श्रद्धान करे तो वह उल्टा अकार्यकारी हो जायेगा । (मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ- 253 )
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(7) इस बात का समर्थन करते हुए श्री पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा है कि -
अबुद्धस्य बोधनार्थ मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम्। व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥ अर्थात् अज्ञानी को समझाने के लिए मुनीश्वर अभूतार्थ (व्यवहार का) उपदेश देते हैं परन्तु जो केवल व्यवहार को ही (साध्य) जानते हैं, उन मिथ्यादृष्टियों के लिए (मुनीश्वरों की) देशना नहीं होती ।
( निश्चय के भानरहित जीव को व्यवहारन का उपदेश कार्यकारी नहीं है, क्योंकि अज्ञानी तो व्यवहार को ही निश्चय मान लेते हैं ।
माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा, निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥ 7 ॥
अर्थ - जिस प्रकार कोई ( सच्चे) सिंह को सर्वथा न जानता हो, उसे तो बिलाव ही सिंहरूप है ( वह बिलाव को ही सिंह मानता है), उसी प्रकार जो निश्चय के स्वरूप को न जानता हो, उसके