________________
328
(4) आत्मा को पर के निमित्त से जो अनेक भाव होते हैं, वे सब व्यवहारनय के विषय होने से, व्यवहारनय तो पराश्रित है, और जो एक अपना स्वाभाविक भाव है, वही निश्चयनय का विषय होने से निश्चयनय आत्माश्रित है... इस प्रकार निश्चयनय को प्रधान कहकर व्यवहारनय के ही त्याग का उपदेश किया है, उसका कारण यह है कि जो निश्चय के आश्रय से वर्तते हैं, वे ही कर्म से मुक्त होते हैं और जो एकान्त व्यवहार के ही आश्रय से वर्तते हैं, वे कर्म से कभी नहीं छूटते ।
( श्री समयसार गाथा 272 का भावार्थ ) (5) यह संसारी अवस्था और यह मुक्त अवस्था - ऐसे भेदरूप जो आत्मा का निरूपण करते हैं, वह भी व्यवहारनय का विषय है। उसका अध्यात्मशास्त्र में अभूतार्थ-असत्यार्थ नाम से वर्णन किया है। शुद्ध आत्मा में जो संयोगजनित दशा हो, वह तो असत्यार्थ ही है; कहीं शुद्धवस्तु का वैसा स्वभाव नहीं है, इसलिए वह असत्य ही है।
प्रकरण आठवाँ
-
पुनश्च, निमित्त से जो अवस्था हुई, वह भी आत्मा का परिणाम है। जो आत्मा का परिणाम है, वह आत्मा में ही है, इसलिए उसे कथञ्चित् सत्य भी कहा जाता है; भेदज्ञान होने पर जैसा हो, वैसा जानता है....
-
पुनश्च, द्रव्यरूप पुद्गलकर्म हैं, वे आत्मा से भिन्न ही हैं; उनका शरीरादि के साथ संयोग है, इसलिए प्रगटरूप में वे आत्मा से भिन्न ही हैं। उन्हें आत्मा का कहना, वह व्यवहार प्रसिद्ध ही है
वह असत्यार्थ - उपचार है ।
( सूत्र पाहुड़ - सूत्र 6 के भावार्थ से )