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प्रकरण आठवाँ
है और उस समय सभी जीव मुक्त हो जाते हैं; तब सदा शिव को जगत् उत्पन्न करने की चिन्ता होती है और मुक्त हुए सर्व जीवों को कर्मरूपी अञ्जन का संयोग करके उन्हें पुनः संसार में फेंकते हैं।'
सिद्धों को भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मरूपी अंजन का संयोग कभी होता ही नहीं - ऐसा 'निरंजन' शब्द से प्रतिपादन करके नैयायिक मत का खण्डन किया है।
(4) आगमार्थ - अनन्त गुणात्मक सिद्धपरमेष्ठी संसार से मुक्त हुए हैं - इस सिद्धान्त का अर्थ प्रसिद्ध है।
(5) भावार्थ - निरंजन ज्ञानमयी परमात्मद्रव्य आदरणीय हैं, उपादेय है - ऐसा भाव कथन में गर्भित है।
(परमात्मप्रकाश, गाथा 1 की टीका) सम्यक् श्रुतज्ञान के बिना निश्चय या व्यवहार कोई नय नहीं हो सकता; इसलिए प्रथम व्यवहार होता है और फिर निश्चय प्रगट होता है - यह मान्यता भ्रममूलक है। जीव स्वाश्रय से निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट करे, तब पूर्व की सत्-देव-गुरु-शास्त्र की श्रद्धा को (भूत नैगमनय से) व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है।
प्रश्न 62 - क्या व्यवहारसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्दर्शन का साधक कारण है?
उत्तर - नहीं; व्यवहारसम्यग्दर्शन तो विकार है और निश्चय -सम्यग्दर्शन तो शुद्धपर्याय है। विकार, वह अविकार का कारण कैसे हो सकता है ? इसलिए व्यवहारसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्दर्शन कारण नहीं हो सकता, किन्तु उसका व्यय (अभाव) होकर निश्चय