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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
होने पर भी वे एक ही 'स्त्री' पदार्थ के वाचक हैं, किन्तु यह नय स्त्री पदार्थ को लिङ्ग के भेद से तीन भेदरूप मानता है।
प्रश्न 43- समभिरूढ़नय किसे कहते हैं ?
उत्तर - 1. जो भिन्न-भिन्न अर्थों का उल्लंघन करके एक अर्थ को रूढ़ि से ग्रहण करे, उसे समभिरूढ़ नय कहते हैं; जैसे कि 'गो' शब्द के अनेक अर्थ (वाणी, पृथ्वी, गमन आदि) होते हैं, किन्तु प्रचलित रूढ़ि से उसका अर्थ गाय होता है ।
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2. पुनश्च, यह पर्याय के भेद से अर्थ को भेदरूप ग्रहण करता है; जैसे कि इन्द्र, शक्र, पुरन्दर - यह तीन शब्द एक ही लिङ्ग के पर्यायवाची शब्द के ही वाचक हैं, किन्तु यह नय इन तीनों के भिन्न-भिन्न अर्थ करता है।
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प्रश्न 44 - एवंभूतनय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिस शब्द का जिस क्रियारूप अर्थ है, उस क्रियारूप परिणमित हो रहे पदार्थ को जो नय ग्रहण करे, उसे एवंभूतनय कहते हैं; जैसे कि पुजारी को पूजा करते समय ही पुजारी कहना । प्रश्न 45 व्यवहारनय अथवा उपनय के कितने भेद हैं ? उत्तर दो भेद हैं- (1) सद्भूत व्यवहारनय और (2) असद्भूत व्यवहानय ।
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प्रश्न 46 - सद्भूतव्यवहारनय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो एक पदार्थ में गुण-गुणी को भेदरूप से ग्रहण करे, उसे सद्भूतव्यवहारनय कहते हैं। (जैन सिद्धान्त दर्पण, पृष्ठ 34 )
प्रश्न 47 सद्भूत व्यवहारनय के कितने भेद हैं ?
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