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प्रकरण सातवाँ
6. आवश्यक - सामायिक, वन्दना, 24 तीर्थङ्कर अथवा पञ्च परमेष्ठी की स्तुति।, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग।
- इनके अतिरिक्त (1) केशलोंच, (2) वस्त्रत्याग (अचेलत्व । दिगम्बरत्व), (3) अस्नानता, (4) भूमिशयन, (5) अदन्तधावन (दातौन न करना), (6) खड़े-खड़े आहार लेना और (7) एक बार आहार लेना - इस प्रकार कुल 28 मूलगुण हुए।
[आचार्य, उपाध्याय और साधु – यह तीनों निश्चयरत्नत्रय, अर्थात् शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्मरूप, जो आत्मस्वरूप का साधन है, उसके द्वारा अपने आत्मा में सदैव तत्पर (सावधान जागृत) रहते हैं; बाह्य में 28 मूलगुण के धारक होते हैं; उनके पास दया का उपकरण पिंछी, शौच का उपकरण कमण्डल और ज्ञान का उपकरण सुशास्त्र होते हैं। वे शास्त्र कथित् 46 दोषों (32 अन्तराय तथा 14 आहार सम्बन्धी दोष) से रहित शुद्ध आहार ग्रहण करते हैं। वे ही मोक्षमार्ग के साधक सच्चे साधु है और वे गुरु कहलाते हैं।]
प्रश्न 22 - अरिहन्त भगवान किन 18 दोषों से रहित हैं ?
उत्तर - क्षुधा, तृषा, भय, रोष (क्रोध), राग, मोह, चिन्ता, जरा (बुढ़ापा), रोग, मृत्यु, स्वेद (पसीना), खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा, जन्म और उद्वेग - यह 18 दोष अरिहन्त भगवान के कभी नहीं होते।
(नियमसार गाथा 6) (दोहा) जन्म, जरा, तृषा, क्षुधा, विस्मय, अरति, खेद; रोग, शोक, मद, मोह, भय, निद्रा, चिन्ता, स्वेद।