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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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(ब) दस अतिशय केवलज्ञान उत्पन्न होने पर होते हैं
(1) उपसर्ग का अभाव, (2) अदया का अभाव, (3) शरीर की छाया नहीं पड़ती, (4) चार मुख दिखलाई देते हैं, (5) सर्व विद्याओं का स्वामित्व, (6) नेत्रों की पलकें नहीं झपकती, (7) सौ योजन तक सुभिक्षता (सुकाल) रहती है, (8) आकाश गमन (धरती से बीस हजार हाथ ऊपर), (9) कवलाहार का अभाव, (10) नख-केश नहीं बढ़ते।
(क) देवकृत चौदह अतिशय -
(1) सकल अर्द्धमागधी भाषा, (2) सर्व जीवों में परस्पर मैत्रीभाव, (3) सर्व ऋतुओं के फल-फूल एक ही समय फलना, (4) दर्पण-समान भूमि, (5) कंटकरहित भूमि, (6) मन्द सुगन्ध पवन, (7) सर्व को आनन्द, (8) गन्धोदक वृष्टि, (9) चरणों के नीचे कमल रचना, (10) सर्व धान्यों की उत्पत्ति होना, (11) दसों दिशाएँ निर्मल होना, (12) आकाश में देवों के आह्वान शब्द तथा जय-जय ध्वनि, (13) धर्मचक्र का आगे चलना, (14) अष्ट मङ्गल द्रव्यों का आगे चलना।
[अष्ट मङ्गल द्रव्य - (1) छत्र, (2) ध्वजा, (3) दर्पण, (4) कलश, (5) चँवर, (6) झारी, (7) पंखा, (8) ठौना (सप्रतिष्ठ)]
(ड) आठ प्रतिहार्य - (विशेष महिमाबोधक चिह्न)
(1) अशोकवृक्ष, (2) पुष्पवृष्टि, (3) दिव्यध्वनि, (4) चँवर, (5) सिंहासन, (6) भामण्डल, (7) दुन्दुभि, (8) तीन छत्र।