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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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'पञ्चाचारों से परिपूर्ण, पञ्चेन्द्रियरूपी हाथी के मद को चूर करनेवाले, धीर और गुण-गमीर ऐसे आचार्य होते हैं।' (गाथा 73)
[आचार्य के 36 गुण होते हैं।]
श्री उपाध्याय का स्वरूप - रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा। णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति॥
'रत्नत्रय से संयुक्त, जिनकथित पदार्थों के शूरवीर उपदेशक और नि:काँक्षभावसहित - ऐसे उपाध्याय होते हैं।' (गाथा 74)
[उपाध्याय के 25 गुण होते हैं। वे मुनियों में अध्यापक होते हैं।]
श्री साधु का स्वरूप - वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयारत्ता। णिग्गंथा णिम्मोहा साहू दे एरिसा होंति॥ 'व्यापार से विमुक्त, चतुर्विध (चार प्रकार की) आराधना में सदैव रक्त / लीन, निर्ग्रन्थ और निर्मोह ऐसे साधु होते हैं।'
(गाथा 75) [साधु के 28 मूलगुण होते हैं] आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु का सामान्य स्वरूप
जो निश्चयसम्यग्दर्शनसहित है, विरागी है, समस्त परिग्रह के त्यागी हैं; जिन्होंने शुद्धोपयोग मुनिधर्म अंङ्गीकार किया है और जो अन्तरङ्ग में उस शुद्धोपयोग द्वारा अपने आत्मा का अनुभव करते हैं, परद्रव्य में अहंबुद्धि नहीं करते, अपने ज्ञानादि स्वभाव को ही