________________
288
प्रकरण सातवाँ
जिस प्रकार कोई दूसरे को दूसरे से भिन्न बतलाता हो, उसी प्रकार यह आत्मा और शरीर की भिन्नता का प्ररूपण करता है परन्तु मैं इन शरीरादि से भिन्न हूँ - ऐसा भाव भासित नहीं होता।
पर्याय में जीव-पुद्गल के परस्पर निमित्त से अनेक क्रियाएँ होती है, उन सबको दो द्रव्यों के मिलाप से उत्पन्न मानता है, परन्तु यह जीव की क्रिया है, इसमें पुद्गल निमित्त है, तथा यह पुद्गल की क्रिया है, इसमें जीव निमित्त है; इस प्रकार भिन्न-भिन्न भाव भासित नहीं होता। इत्यादि भाव भासित हुए बिना उसे जीवअजीव का सच्चा श्रद्धानी नहीं कहा जा सकता: क्योंकि जीवअजीव को जानने का प्रयोजन तो यही था, जो इसे नहीं हुआ।'
(मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 225-226 के आधार पर) प्रश्न 10 - अज्ञानी को आस्रवतत्त्व सम्बन्धी कैसी श्रद्धा होती है?
उत्तर - ... उस आस्रवतत्त्व में जो हिंसादिरूप पापास्रव हैं, उन्हें तो हेय जानता है तथा अहिंसारूप पुण्यास्रव हैं, उन्हें उपादेय मानता है क्योंकि यह दोनों कर्मबन्ध के ही कारण है; इसलिए उनमें उपादेयपना मानना ही मिथ्यादर्शन है।
हिंसा में मारने की बुद्धि होती है, किन्तु जीव की आयु पूरी हुए बिना वह नहीं मरता; और यह अपनी द्वेषपरिणति से स्वयं ही पापबन्ध करता है, तथा अहिंसा में रक्षा करने की बुद्धि होती है, किन्तु उसकी आयु-अवशेष के बिना वह नहीं जीता, मात्र यह अपनी प्रशस्त रागपरिणति से स्वयं ही पुण्यबन्ध करता है। इस प्रकार ये दोनों हेय हैं और जहाँ वीतराग होकर ज्ञाता-दृष्टारूप प्रवर्तन करे, वहाँ निर्बन्धता है, इसलिए वह उपादेय है किन्तु ऐसी