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________________ 286 प्रकरण सातवाँ को प्रगटरूप से दुःख देनेवाले हैं परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव उन्हें हितरूप मानकर उनका निरन्तर सेवन करता है, यह उसकी आस्रवतत्त्व सम्बन्धी भूल है। 4. बन्धतत्त्व सम्बन्धी भूल जैसी सोने की बेड़ी, वैसी ही लोहे की बेड़ी- दोनों बन्धन कारक हैं; उसी प्रकार पुण्य और पाप दोनों जीव को बन्धनकर्ता है किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा न मानकर पुण्य को अच्छा / हितकारी मानता है । तत्त्वदृष्टि से पुण्य-पाप दोनों अहितकर ही हैं, परन्तु अज्ञानी वैसा नहीं मानता, यह उसकी बन्धतत्त्व सम्बन्धी भूल है । 5. संवरतत्त्व सम्बन्धी भूल निश्चयसम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र जीव को हितकारी हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव उन्हें कष्टदायक मानता है, यह उसकी संवरतत्त्व सम्बन्धी भूल है। 6. निर्जरातत्त्व सम्बन्धी भूल - आत्मा में एकाग्र होकर शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की इच्छा रोकने से निजात्मा की शुद्धि का प्रतपन होना, वह तप है, और उस तप से निर्जरा होती है। ऐसा तप सुखदायक है परन्तु अज्ञानी उसे क्लेशदायक मानता है और आत्मा की ज्ञानादि अनन्त शक्तियों को भूलकर पाँच इन्द्रियों के विषयों में सुख मानकर उसमें प्रतीति करता है, यह निर्जरातत्त्व सम्बन्धी भूल है । बालतप से मोक्षमार्ग के कारणरूप निर्जरा मानना भी भूल है। 7. मोक्षतत्त्व सम्बन्धी भूल आत्मा की परिणूर्ण शुद्धदशा का प्रगट होना, वह मोक्ष है, -
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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