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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 285 उत्तर - 1. जीवतत्त्व सम्बन्धी भूल - जीव तो त्रिकाल ज्ञानस्वरूप है; इसे वह अज्ञानवश नहीं जानता और जो शरीर है, वह मैं हूँ, शरीर का कार्य मैं कर सकता हूँ - ऐसा मानता है; शरीर स्वस्थ हो तो मुझे लाभ हो, बाह्य अनुकूल संयोगों से मैं सुखी और बाह्य प्रतिकूल संयोगों से दु:खी, मैं निर्धन, मैं धनवान, मैं बलवान, मैं निर्बल, मैं मनुष्य, मैं कुरूप, मैं सुन्दर - ऐसा मानता है; शरीराश्रित उपदेश और उपवासादि क्रियाओं में निजत्व / अपनापन मानता है। इस प्रकार अज्ञानी जीव, पर को स्व-स्वरूप मानकर अपने स्वतत्त्व का / जीवतत्त्व का इंकार करता है; इसलिए वह जीवतत्त्व सम्बन्धी भूल करता है। 2. अजीवतत्त्व सम्बन्धी भूल - मिथ्या अभिप्रायवश जीव ऐसा मानता है कि शरीर उत्पन्न होने से मेरा जन्म हुआ, शरीर का नाश होने से मैं कर जाऊँगा; धन, शरीर इत्यादि जड़ पदार्थों में परिवर्तन होने से अपने में इष्टअनिष्ट परिवर्तन मानना; शरीर की उष्ण अवस्था होने पर मुझे बुखार आया; भूख-प्यास आदिरूप अवस्था होने पर मुझे भूख, प्याल लग रहे हैं - ऐसा मानना; शरीर कट जाने पर मैं कट गया - इत्यादिरूप अजीव की अवस्था को अज्ञानी जीव अपनी अवस्था मानता है - यह उसकी अजीवतत्त्व सम्बन्धी भूल है, क्योंकि वह अजीव को जीव मानता है। इसमें अजीव को स्वतत्त्व (जीवतत्त्व) मानकर वह अजीवतत्त्व को अस्वीकार करता है। 3. आस्त्रवतत्त्व सम्बन्धी भूल मिथ्यात्व, राग, द्वेष, शुभाशुभभाव आस्रव हैं। वे भाव, आत्मा
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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