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प्रकरण सातवाँ
से (सर्वथा) परिणामी ही हों तो (1) संयोग पर्यायरूप एक ही पदार्थ सिद्ध होता है और (2) यदि वे सर्वथा अपरिणामी हों तो जीव-अजीव द्रव्यरूप दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं - यदि ऐसा है तो आस्रवादि सात तत्त्व किस प्रकार सिद्ध होते हैं ?
उत्तर -... जीव और अजीवद्रव्य 'कथञ्चित् परिणामी ' होने से शेष पाँच तत्त्वों का कथन न्याययुक्त सिद्ध होता है ।
'कथञ्चित् परिणामीपना' का अर्थ यह है कि
जिस प्रकार स्फटिकमणि यद्यपि वह स्वभाव से निर्मल है, तथापि जासूद पुष्प आदि के समीप (अपनी योग्यता के कारण ) पर्यायान्तर परिणति ग्रहण करता है; पर्याय में स्फटिकमणि यद्यपि उपाधि का ग्रहण करता है, तथापि निश्चय से अपना जो निर्मल स्वभाव है, उसे वह नहीं छोड़ता; उसी प्रकार जीव का स्वभाव भी शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से तो सहज शुद्ध चिदानन्द एकस्वरूप है, परन्तु स्वयं अनादि कर्मबन्धरूप पर्याय के वश होने से वह रागादि परद्रव्य उपाधि पर्याय को ग्रहण करता है । पर्याय में यद्यपि जीव परपर्यायरूप से, अर्थात् परद्रव्य के लक्ष्य से होनेवाली अशुद्धपर्यायरूप से परिणमित होता है, तथापि निश्चयनय से शुद्ध स्वरूप को नहीं छोड़ता। पुद्गलद्रव्य का भी ऐसा ही होता है। इस प्रकार जीव- अजीव का परस्पर अपेक्षासहित परिणमन होना ही ‘कथञ्चित् परिणामीपना' शब्द का अर्थ है।
'पूर्वोक्त जीव और अजीव - दो द्रव्यों को इन पाँच तत्त्वों में मिलाने से कुल सात तत्त्व होते हैं और उनमें पुण्य-पाप को (आस्रवों में से) पृथक् गिना जाये तो नव पदार्थ होते हैं। पुण्य और