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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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रत्नत्रयस्वरूप परमविशुद्ध ऐसी शुद्धपर्याय का प्रगट होना, वह भावमोक्ष है, और अपनी योग्यता से द्रव्यकर्मों का आत्मप्रदेशों से अत्यन्त अभाव होना, द्रव्यमोक्ष है।
(1) सात तत्त्वों में प्रथम दो तत्त्व 'जीव' और 'अजीव' - यह द्रव्य हैं और अन्य पाँच तत्त्व उनकी - जीव और अजीव की संयोगी और वियोगी पर्यायें - विशेष अवस्थाएँ हैं। आस्रव और बन्ध संयोगी पर्यायें हैं, तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष वे जीवअजीव की वियोगी पर्यायें हैं।
जीव और अजीव तत्त्व सामान्य है और अन्य पाँच तत्त्व पर्यायें होने से विशेष भी कहे जाते हैं।
(2) जिसकी दशा को अशुद्ध में से शुद्ध करना है, उसका नाम तो अवश्य ही प्रथम बतलाना चाहिए, इसलिए जीवतत्त्व प्रथम कहा; फिर जिस ओर के लक्ष्य से अशुद्धता, अर्थात् विकार होता है, उसका नाम आना आवश्यक है, इसलिए अजीवतत्त्व कहा। अशद्धदशा में कारण-कार्य का ज्ञान करने के लिए आस्त्रव और बन्धतत्त्व कहे हैं। इनके पश्चात् मुक्ति का कारण कहना चाहिए; और मुक्ति का कारण वही हो सकता है जो बन्ध और बन्ध के कारण से विपरीत प्रकार का हो; इसलिए आस्रव का निरोध हो, वह संवरतत्त्व कहा गया है। अशुद्धता-विकार निकल जाने के कार्य को 'निर्जरातत्त्व कहा है और जीव अत्यन्त शुद्ध हो जाए, वह दशा 'मोक्षतत्त्व है...
(मोक्षशास्त्र स्वा० मं० सो० आवृत्ति अ० 1, सूत्र 4 की टीका) प्रश्न 4 - यदि जीव और अजीव - यह दोनों द्रव्य एकान्तरूप