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प्रकरण सातवाँ
पाप - मिथ्यात्व, हिंसा, असत्य, चोरी, अव्रतादि के अशुभभाव, पाप हैं। उस समय ज्ञानावरणीय, मोहनीय, असातावेदनीय आदि कर्मयोग्य पुद्गल स्वयं (स्वतः) जीव के साथ बँधते हैं, वह द्रव्यपाप हैं, (उसमें जीव का अशुभभाव निमित्तमात्र है।)
[परमार्थतः (वास्तव में) पुण्य-पाप (शुभाशुभभाव) आत्मा को अहितकर हैं, आत्मा की क्षणिक अशुद्ध अवस्था है। समयग्दृष्टि को पुण्यभाव से आंशिक संवर-निर्जरा होते हैं, यह मान्यता मिथ्या है। द्रव्य पुण्य-पाप आत्मा का हित-अहित नहीं कर सकते।]
__ (समयसार कलश टीका, कलश 110 के आधार से) बन्ध - आत्मा का अज्ञान, राग-द्वेष, पुण्य-पापरूप विभाव में रुक जाना / अटक जाना, वह भावबन्ध है और उस समय कर्मयोग्य पुद्गलों का स्वयं स्वत: जीव के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप से बँधना, वह द्रव्यबन्ध है, उसमें जीव का अशुद्धभाव निमित्तमात्र है।
संवर - पुण्य-पापरूप अशुद्धभाव को, अर्थात् आस्रव को आत्मा के शुद्धभाव द्वारा रोकना, वह भाव संवर है और तदनुसार कर्मों का आना स्वयं स्वतः रुक जाए, वह द्रव्य संवर है।
निर्जरा - अखण्डानन्द शुद्ध आत्मस्वभाव लक्ष्य के बल से आंशिक शुद्धि की वृद्धि और अशुद्ध - शुभाशुभ इच्छारूप अवस्था की आंशिक हानि करना, वह भाव निर्जरा है; और उसका निमित्त पाकर जड़कर्म का अंशतः खिर जाना, वह द्रव्य निर्जरा।
मोक्ष - समस्त कर्मों के क्षय के कारणभूत तथा निश्चय