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उपादान-निमित्त की स्वतन्त्रता
अवश्य होता है किन्तु जीव की पर्याय और कर्म दोनों मिलकर विकार नहीं करते। कर्मोदय के कारण विकार नहीं होता और विकार किया इसलिए कर्म उदय में आये, ऐसा भी नहीं है तथा जीव विकार न करे तब कर्म खिर जाते हैं, उसे निमित्त कहते हैं, उस समय उन परमाणुओं की योग्यता ही ऐसी थी।
जिस द्रव्य की, जिस समय, जिस क्षेत्र में, जिस संयोग में और जिस प्रकार, जैसी अवस्था होनी हो, वैसी उसी प्रकार अवश्य होती है, उसमें अन्तर हो ही नहीं सकता - इस श्रद्धा में तो वीतरागी दृष्टि हो जाती है। इसमें स्वभाव की दृढ़ता और स्थिरता की एकता है तथा विकार से उदासीन और पर से भिन्नता है; इस प्रकार इसमें प्रति समय भेदविज्ञान का वीतरागी कार्य है।
नैमित्तिक की व्याख्या प्रश्न – नैमित्तिक का अर्थ व्याकरण के अनुसार तो ऐसा होता है कि 'जो निमित्त से होता है सो नैमित्तिक है।' जबकि यहाँ तो यह कहा है कि निमित्त से नैमित्तिक में कुछ नहीं होता; इसका क्या कारण है?
उत्तर – 'जो निमित्त से होता है सो नैमित्तिक है, अर्थात् निमित्त जनक और नैमित्तिक जन्य है' यह परिभाषा व्यवहार से की गयी है। वास्तव में निमित्त से नैमित्तिक नहीं होता किन्तु उपादान का जो कार्य है, वह नैमित्तिक है और जब नैमित्तिक अर्थात् कार्य होता है, तब निमित्त भी होता है; इसलिए उपचार से उस निमित्त को जनक भी कहा जाता है। नैमित्तिक का अर्थ ऐसा भी होता है कि 'जिसमें निमित्त का सम्बन्ध हो, वह नैमित्तिक है' अर्थात् जब नैमित्तिक होता है, तब निमित्त भी अवश्य ही होता है, इतना सम्बन्ध