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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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है किन्तु यदि निमित्त, नैमित्तिक में कुछ भी करे तो उनमें निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध न रहकर कर्ता-कर्म सम्बन्ध हो जाएगा किन्तु दो भिन्न द्रव्यों के बीच में कर्ता-कर्म सम्बन्ध कभी नहीं हो सकता।
प्रश्न – निमित्त के द्वारा उपादान का कार्य होता है, अतः हमें निमित्त मिलाना चाहिए; हमें निमित्त की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्या यह बात ठीक है?
उत्तर - यह बात मिथ्या है। मैं निमित्त मिलाऊँ, इस मान्यता में पर की कर्तृत्वबुद्धि और पराधीनदृष्टि है । निमित्त नहीं था, इसलिए कार्य रुक गया और निमित्त मिलाऊँ तो कार्य हो, यह बात सच नहीं है, किन्तु जब कार्य होना ही नहीं था, इसलिए तब निमित्त भी नहीं था और जब कार्य होता है, तब निमित्त भी अवश्य होता है - यह अबाधित नियम है। पर निमित्तों को आत्मा प्राप्त कर सकता है - ऐसा मानना ठीक नहीं है।
इस प्रकार आत्मा को अपने कार्य में पर की अपेक्षा नहीं है।
कोई यह माने कि 'हमें निमित्त की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए' तो वह जीव सदा निमित्त की ओर ही देखा करेगा अर्थात् उसकी दृष्टि बाहर में ही रहा करेगी और वह पर की उपेक्षा करके स्वभावदृष्टि का निर्मल कार्य प्रगट नहीं कर सकेगा। निमित्त के मार्ग से उपादान का कार्य कभी नहीं होता, किन्तु उपादान की योग्यता से ही (उपादान के मार्ग से ही) उसका कार्य होता है।
जिनशासन का उपदेश :निमित्त की उपेक्षा करके स्वसन्मुख होओ निमित्त की उपेक्षा नहीं करना अर्थात् परद्रव्य के साथ का सम्बन्ध नहीं तोड़ना - ऐसी मान्यता जैनशासन के विरुद्ध है।