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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 267 सकता और जहाँ ज्ञान, त्रिकाली स्वभाव के सन्मुख हुआ, वहाँ स्वभाव की प्रतीति के बल से पर्याय में से राग-द्वेष होने की योग्यता प्रतिक्षण घटती ही जाती है। जिसने स्वभाव का निर्णय किया, उसकी पर्याय में अधिक समय तक राग-द्वेष रहें, या अनन्तानुबन्धी राग-द्वेष रहें; ऐसी योग्यता कदापि नहीं होती - ऐसा ही सम्यक् निर्णय का बल है और मोक्ष इसका फल है। कार्य में निमित्त कुछ नहीं करता तथापि उसे 'कारण' क्यों कहा गया है? कार्य के दो कारण कहे गये हैं। इनमें एक उपादानकारण ही यथार्थ कारण है, दूसरा निमित्तकारण तो आरोपित कारण है। उपादान और निमित्त. इन दो कारणों के कहने का आशय ऐसा नहीं है कि दोनों एकत्रित होकर कार्य करते हैं। जब उपादानकारण स्वयं कार्य करता है, तब दूसरी वस्तु पर आरोप करके उसे निमित्तकारण कहा जाता है किन्तु वास्तव में दो कारण नहीं हैं, एक ही कारण है। जैसे मोक्षमार्ग दो नहीं, एक ही है। प्रश्न – जब निमित्त वास्तव में कारण नहीं है, तब फिर उसे कारण क्यों कहा? उत्तर – जिसे निमित्त कहा जाता है, उस पदार्थ में उस प्रकार की अर्थात् निमित्तरूप होने की योग्यता है; इसलिए अन्य पदार्थों से पृथक् पहिचानने के लिए उसे 'निमित्तकारण' की संज्ञा दी गयी है। ज्ञान का स्वभाव स्व-परप्रकाशक है, इसलिए वह पर को भी जानता है और पर में जो निमित्तपने की योग्यता है, उसे भी जानता है। कर्मोदय के कारण जीव को विकार नहीं होता जब जीव की पर्याय में विकार होता है, तब कर्म निमित्तरूप
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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