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उपादान - निमित्त की स्वतन्त्रता
होती हैं । वहाँ दोनों का स्वतन्त्र परिणमन है। एक के कारण दूसरे में कुछ नहीं हुआ है, इसी को निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध कहते हैं । राग-द्वेष का कारण कौन है ?
सम्यग्दृष्टि के भी राग-द्वेष क्यों होता है ?
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प्रश्न
यदि कर्म आत्मा को विकार नहीं कराते हों तो आत्मा में विकार होने का कारण कौन है ? सम्यग्दृष्टि जीवों के विकार करने की भावना नहीं होती, तथापि उनके भी विकार होता है, इसलिए कर्म विकार कराते हैं न ?
उत्तर
कर्म आत्मा को विकार कराता है - यह बात मिथ्या है। आत्मा को अपनी पर्याय के दोष से ही विकार होता है, कर्म, विकार नहीं कराता। सम्यग्दृष्टि के राग-द्वेष करने की भावना नहीं होने पर भी राग-द्वेष होता है, इसका कारण चारित्रगुण की वैसी पर्याय की योग्यता है। राग-द्वेष की भावना नहीं है, वह तो श्रद्धागुण की पर्याय है और राग-द्वेष होता है, यह चारित्रगुण की पर्याय है । अतः इस राग-द्वेष का कारण न तो परद्रव्य है और न आत्मस्वभाव ही उसका कारण है; तत्कालीन पर्याय ही कारण है ।
सम्यक् निर्णय का बल और फल
प्रश्न
जो विकार होता है, वह चारित्रगुण की पर्याय की ही योग्यता है, तब फिर जहाँ तक चारित्रगुण की पर्याय में विकार होने की योग्यता होगी, वहाँ तक विकार होता ही रहेगा? ऐसा होने पर विकार को दूर करना जीव के आधीन कैसे रहा ?
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उत्तर - प्रत्येक समय की स्वतन्त्र योग्यता है - ऐसा निर्णय किस ज्ञान में किया है ? त्रिकाली स्वभाव के सन्मुख हुए बिना, ज्ञान में एक-एक समय की पर्याय की स्वतन्त्रता का निर्णय नहीं हो