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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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मान्यता स्वतन्त्र स्वभावदृष्टि है। संयोगाधीनदृष्टिवन्त जीव, मिथ्यादृष्टि है और स्वभावदृष्टिवन्त जीव, सम्यग्दृष्टि है।
प्रत्येक कार्य वस्तु के स्वभाव की समय-समय की योग्यता से होता है। मिथ्यादृष्टि जीव उस स्वभाव को नहीं देखता, किन्तु निमित्त के संयोग को देखता है - यही उसकी पराधीनदृष्टि है। उस दृष्टि से कभी भी स्व-पर की एकत्वबुद्धि दूर नहीं होती। सम्यग्दृष्टि जीव स्वतन्त्र वस्तस्वभाव को देखता है कि प्रत्येक वस्त की समय-समय की योग्यता से ही उसका कार्य स्वतन्त्रता से होता है
और उस समय जिस निमित्त की योग्यता होती है, वही निमित्त होता है; दूसरा हो ही नहीं सकता। सबमें अपने कारण से अपनी अवस्था हो रही है। वहाँ अज्ञानी यह मानता है कि यह कार्य निमित्त से हुआ है अथवा निमित्त ने किया है।'
उपादान और निमित्त की स्वतन्त्र योग्यता जब आत्मा अपनी पर्याय में राग-द्वेष-मोह करता है, तब कर्म के जिन परमाणुओं की योग्यता होती है, वे उदयरूप होते हैं, कर्म न हो ऐसा नहीं हो सकता किन्तु कर्म उदय में आया. इसलिए जीव के राग-द्वेष हआ - ऐसा नहीं है और जीव ने राग-द्वेष किया. इसलिए कर्म उदय में आया - ऐसा भी नहीं है। जीव के अपने पुरुषार्थ की अशक्ति से राग-द्वेष होने की योग्यता थी; इसीलिए राग-द्वेष हुए हैं और उस समय जिन कर्मों में योग्यता थी, वे कर्म उदय में आये हैं और उन्हीं को निमित्त कहा जाता है किन्तु कोई किसी का कर्ता नहीं है। ___ जब ज्ञान की पर्याय अपूर्ण हो, तब ज्ञानावरणकर्म में ही निमित्तपने की योग्यता है। जब जीव अपनी पर्याय में मोह करता है, तब मोहकर्म को ही निमित्त कहा जाता है - ऐसी उन कर्मपरमाणुओं की