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उपादान - निमित्त की स्वतन्त्रता
स्थित होते हैं, यह भी उनकी ही वैसी योग्यता के कारण से है, उस समय अधर्मास्तिकाय निमित्त है।
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प्रश्न सिद्धभगवान लोकाकाश के बाहर गमन क्यों नहीं करते ?
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उत्तर उनकी योग्यता ही ऐसी है, क्योंकि वह लोक का द्रव्य है और उसकी योग्यता लोक के अन्त तक ही जाने की है; लोकाकाश से बाहर जाने की उनमें योग्यता ही नहीं है। 'अलोक में धर्मास्तिकाय का अभाव है, इसलिए सिद्ध वहाँ गमन नहीं करते', इस प्रकार धर्मास्तिकायाभावात् - यह व्यवहारनय का कथन है। तात्पर्य यह है कि उपादान में स्वयं अलोकाकाश में जाने की योग्यता नहीं होती, तब निमित्त भी नहीं होता- ऐसा उपादान - निमित्त का मेल बताने के लिए ही यह कथन है ।
निमित्त के कारण उपादान में विलक्षणदशा नहीं होती
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प्रश्न – उपादान में निमित्त कुछ नहीं करता, यह बात सच है, किन्तु जब निमित्त होता है, तब उपादान में विलक्षण अवस्था तो होती ही है ? जैसे अग्निरूपी निमित्त के आने पर पानी तो उष्ण होता ही है ?
उत्तर - जिस पानी की पर्याय का स्वभाव, उसी समय गर्म होने का था, वही पानी, उसी अग्नि के संयोग में आया है और अपनी योग्यता से स्वयं ही गर्म हुआ है; अग्नि के कारण उसे विलक्षण होना पड़ा हो - ऐसी बात नहीं है और अग्नि ने पानी को गर्म नहीं किया है। मिथ्यादृष्टि, संयोग और सम्यग्दृष्टि, स्वभाव को देखता है
‘अग्नि से पानी गर्म हुआ है' - ऐसी मान्यता संयोगाधीनपराधीनदृष्टि है और पानी अपनी योग्यता से ही गर्म हुआ है - ऐसी