________________
254
उपादान-निमित्त की स्वतन्त्रता
उत्तर – निमित्त से धर्म होता है, राग से धर्म होता है, शरीरादि का आत्मा कुछ कर सकता है - ऐसी मान्यता के रूप में अगृहीत - मिथ्यात्व अनादिकाल से विद्यमान था और जन्म के बाद शास्त्रों को पढ़कर अथवा कुगुरु इत्यादि के निमित्त से मिथ्या-नियतिवाद का नवीन कदाग्रह ग्रहण किया; इसलिए उसे गृहीतमिथ्यात्व कहा जाता है। पहले जिसे अनादिकालीन अगृहीत -मिथ्यात्व होता है; उसी को गृहीतमिथ्यात्व होता है।
जीव, इन्द्रिय-विषयों की पुष्टि के लिए 'जो होना होगा सो होगा' ऐसा कहकर साता में रञ्जित होने की आदत से स्वच्छन्दता का मार्ग ढूँढ़ निकालते हैं, उसका नाम गृहीत-मिथ्यात्व है। वह जीव न तो सर्वज्ञ को पहचानता है और न वस्तु के स्वरूप को ही जानता है। सम्यनियतिवाद तो स्वभावभाव है, स्वतन्त्रता है, वीतरागता है; उसमें सर्वज्ञ की और वस्तुस्वभाव की पहचान है। सम्यनियतिवाद के निर्णय से निमित्ताधीनदृष्टि
और स्व-पर की एकत्वबुद्धि का अभाव जिस वस्तु में, जिस समय, जैसी पर्याय होनी हो और जिस निमित्त की उपस्थिति में होनी हो; उस वस्तु में, उस समय, वैसी पर्याय होती ही है और वे निमित्त ही उस समय होते हैं - इस नियम में तीन लोक और तीन काल में कोई परिवर्तन नहीं होता। यही यथार्थ नियति का निर्णय है; इसमें आत्मस्वभाव के श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र आ जाते हैं और निमित्त की दृष्टि दूर हो जाती है। जिसकी ऐसी मान्यता है कि 'मैं पर का कर्ता तो नहीं हूँ किन्तु मैं निमित्त बनकर उसकी पर्याय में आगे-पीछे कर दूँ', वह मिथ्यादृष्टि है।
यह निमित्त है, इसलिए पर का कार्य होता है - ऐसी बात नहीं