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उपादान - निमित्त की स्वतन्त्रता
उपादान - निमित्त सम्बन्धी सभी गड़बड़ दूर हो जाए, क्योंकि जिस वस्तु में जिस समय जो पर्याय होती है, वही होती है, तो फिर 'निमित्त उसको करे या निमित्त के बिना वह न हो' - इस बात को अवकाश ही कहाँ है ? जो जीव सर्वज्ञ को जानकर, नियतिवाद को मानकर, पर के और राग के कर्त्तत्व का अभाव करता है तथा ज्ञातादृष्टापनेरूप साक्षीभाव प्रगट करता है, वह जीव अनन्त पुरुषार्थी सम्यग्दृष्टि है।
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कौन कहता है कि सम्यक्नियतिवाद, गृहीतमिथ्यात्व है ?
सम्यक्नियतिवाद, गृहीतमिथ्यात्व नहीं किन्तु वीतरागता का कारण है। जो सर्वज्ञ के स्वीकाररूप ऐसे सम्यक्नियतिवाद को एकान्तमिथ्यात्व कहते हैं, उन्होंने इस बात को यथार्थतया समझा तो नहीं, भलीभाँति सुना तक नहीं है।
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सम्यक्नियतिवाद के निर्णय में तो वस्तु की स्वतन्त्रता की प्रतीति है और केवलज्ञान की प्रतीति है । अपनी अवस्था का आधार द्रव्य है और द्रव्यस्वभाव शुद्ध है - ऐसी प्रतीति के साथ 'जो होना हो सो होता है' इस प्रकार जो मानता है, वह जीव वीतरागदृष्टि है । उसका निर्णय वीतरागता का कारण है ।
नियतिवाद के दो प्रकार है एक सम्यक्नियतिवाद और दूसरा मिथ्यानियतिवाद । सम्यक्नियतिवाद, वीतरागता का कारण है, उसका स्वरूप ऊपर बताया है । कोई जीव इस प्रकार नियतिवाद को मानता तो है कि 'जैसा होना हो, वैसा ही होता है ' किन्तु पर का लक्ष्य और पर्यायदृष्टि छोड़कर स्वभावसन्मुख नहीं होता अथवा नियति का निश्चय करनेवाले अपने ज्ञान और पुरुषार्थ की स्वतन्त्रता को जो स्वीकार नहीं करता; पर और विकार के कर्तृत्वरूप अभिमान को नहीं छोड़ता; इस प्रकार पुरुषार्थ का निषेध करके स्वच्छन्दता से